Saturday, August 29, 2009

अभी तो मैं जवान हूँ


सुप्रसिद्ध कथाकार और हंस के संपादक राजेन्द्र यादव 28 अगस्त को 80 वर्ष के हो गए । इस उम्र में भी वे वैसे ही जुझारू, बौद्धिक रूप से सजक और रचनात्मक रूप से सक्रिय हैं जिसके लिए उन्हे शुरू से ही जाना जाता है। भारतीय वंचित समाजों के लिए भूमिका ऐतिहासिक महत्व की है। बहस तलब हर मुद्दे-प्रसंग पर राजेन्द्र यादव एक नई दृष्टि लेकर आए हैं। नयापन उनकी विशिष्टता है जिसके कारण वे हिन्दी जगत की चेतना पर हमेशा अपना दबदबा बनाए रखते हैं। इस उम्र में भी उनकी सक्रियता के पीछे उनका नयापन है। वे खुद कहते हैं कि नयापन का अर्थ है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। सालगिरह के अवसर पर मशहूर कथाकार, विचारक और ‘हंसज् के संपादक राजेन्द्र यादव से पंकज चौधरी की बातचीत


प्रश्न 1-मशहूर कथाकार संजीव ने अपने एक इंटरव्यू में आपको ‘बांका जवानज् कहा था। आपकी सक्रियता, गतिशीलता और लड़ाकू तेवर को देखते हुए अभी भी संजीव की बात आपके ऊपर सटिक बैठती है। हालांकि अब आप अस्सी पार के हो गए हैं। इस उम्र में आकर मेरा ख्याल है कि एकाध अपवादों को यदि छोड़ दिया जाए तो हिन्दी के अमूमन मूर्धन्य भसिया जाते हैं?

-मैं मानता हूं कि आदमी उम्र से वृद्ध नहीं होता। उम्र शरीर की होती है, मन की नहीं। जब तक आपको संसार की सुंदरता आकर्षित करती है तब तक उम्र आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। मैं अभी भी भीतर से अपने-आपको युवा ही महसूस करता हूं। उम्र का अर्थ होता है जिज्ञासा और भविष्य को देखने की क्षमता। इस अर्थ में मैं भविष्यवादी हूं और जो मैं नहीं हूं उसे युवा मित्रों की आंखों में देखकर प्रेरणा पाता हूं। कुछ अतीतजीवी लोग बीस-पच्चीस वर्षो में ही बूढ़े होने लगते हैं। जो यथास्थिति को तोड़ नहीं सकता वह किस बात का युवा है। युवा होने का मतलब है कि मूल मान्यताओं, परंपराओं या विश्वासों को मानने से इनकार करना। हमारे बाप-दादा जहां खड़े थे अगर हम भी वहीं खड़े रहें तो फिर मैं समझता हूं कि हमारा जन्म लेना ही व्यर्थ है।

प्रश्न 2-उम्र के इस मोड़ पर आकर क्या कभी आपको ऐसा लगा कि जीवन अकारथ गया, व्यर्थ गया। आप फलां किताब लिखना चाहते थे, लिख नहीं पाए। कुछ और बड़े कामों को अंजाम देना चाहते थे, दे नहीं पाए। आपने कहीं लिखा है कि यदि आपका पैर सही होता तो आप लेखक की जगह पालिटिशियन होते?

-जितने भी असंतोष हैं सब युवा होने के प्रमाण हैं। मुङो वही सब करना है जो अभी तक मैं नहीं कर पाया। यहां मैं यह बात तुम्हें बता दूं कि पैर का टूटना मेरे लिए कभी भी बाधा नहीं बना। मैं पूरे भारतवर्ष और विदेशों में घूमा हूं। पहाड़ों से लेकर कन्याकुमारी तक। जीवन में कहीं भी ये भावना आड़े नहीं आई कि मुझमें कोई कमी भी है। हां, इसका एक फायदा यह हुआ कि मेरा ध्यान अध्ययन की ओर उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया। अभी तक लगभग मेरी 60 किताबें छप चुकी हैं और आठ-दस छपने की तैयारी में हैं। फिर भी मुङो लगता है कि अभी तक मैंने ऐसा कुछ नहीं लिखा जो मेरा अपना हो।

प्रश्न 3- स्त्री विमर्श के आप बड़े पैरोकार हैं। यूपीए-2 का जब गठन हुआ तो कांग्रेस ने तीन महीने के अंदर महिला आरक्षण विधेयक पर मुहर लगाने की बात की। पेंच इसमें यह है कि इस आरक्षण का दलित और पिछड़ी जातियों के नेताओं ने विरोध करना शुरू कर दिया है। माननीय शरद यादव ने तो यहां तक कह दिया कि अगर यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरूप में पास होता है तो मैं सुकरात की तरह जहर खा लूंगा। इनका तर्क है कि राजनीति में दलित और पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व को कम करने के लिए ‘महिला आरक्षणज् जसा षड्यंत्र रचा गया है। दूसरी ओर इनका कहना है कि हां, ‘आरक्षण के अंदर अगर आरक्षणज् हो तो इस विधेयक को पारित करने पर विचार किया जा सकता है। मेरा ख्याल है कि ‘आरक्षण के अंदर आरक्षणज् का जो तर्क है उसमें दम है, क्योंकि मायावती जसी पावरफुल दलित महिला के लिए भी रीता बहुगुना जोशी जसी महिला दिन-दहाड़े अपशब्दों का इस्तेमाल कर देती हैं?

- ये सारी की सारी राजनीति की बातें हैं जो समय और सुविधा को देखकर की जाती हैं। इन्हें गंभीरता से लेनी भी चाहिए और नहीं भी लेनी चाहिए। सही है कि महिला विधेयक अगर पास हुआ तो ऊंचे, प्रभावशाली और सम्पन्न महिलाएं ही विधायिका में छा जाएंगी। इस विधेयक में ऐसा प्रावधान जरूर होना चाहिए कि पिछड़ी और दलित जातियों की महिलाओं को सामने आने का अवसर मिले। अवसर मिलेगा तो मैं समझता हूं कि वे योग्यता भी अर्जित कर लेंगी। सारा खेल अवसरों का है। योग्यता तो बाद की चीज है। अभी तो यह भारत भी सन् 47 में दी गई उस स्वतंत्रता जसा ही लगता है जब उच्च सवर्ण पुरुषों ने सारे शासन को हथिया लिया और महिलाएं और दलित लम्बे वक्त तक इस भ्रम में बने रहे कि यह स्वतंत्रता उन्हें भी मिली है। भ्रम भंग की प्रक्रिया में महिला और दलित आंदोलन सामने आए। डा. आम्बेडकर ने तब भी इस स्वतंत्रता का विरोध किया था। आज अगर महिलाएं ऊंचे पदों पर दिखाई देती हैं तो हम इसे पचा नहीं पाते। जहां तक अशालीन शब्दों के प्रयोग की बात है तो क्या हमने कभी संसद और विधानसभाओं में उन दृश्यों की समीक्षा की है जहां एक-दूसरे को भयंकर गालियां दी जाती हैं। कुर्सियां फेंकी जाती हैं और बाहर निकलकर समझ लेने की धमकियां दी जाती हैं। सही है कि रीता बहुगुना जोशी को ऐसे शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए था। मगर जब पूरे राजनीति के कुएं में ही भांग पड़ी हो तो अकेले इन्हें ही दोष देना क्यों जरूरी है।

प्रश्न 4-‘हंसज् ने एक लम्बे अरसे तक हिन्दी पट्टी में वैचारिक उत्तेजना पैदा करते रहने का काम किया। दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और उत्तर आधुनिकता जसे विमर्शो को हिन्दी में पैदा करने का श्रेय ‘हंसज् को जाता है। आपके लम्बे-लम्बे सम्पादकीय लेखों ने हमारे जसे युवा लेखकों का निर्माण किया है। ‘हंसज् जब अपने शिखर पर था तो ज्ञानरंजन का वह कथन मुङो याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि राजेन्द्र यादव ने सारे सरस्वतियों को ‘हंसज् में बिठा रखा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से ‘हंसज् का वो ‘तेजज् पता नहीं कहां गुम हो गया है। अब तो मैं इसे 1-5 में भी नहीं रखता?

- जितनी बातें तुमने ‘हंसज् के बारे में बताई हैं इस संदर्भ में मेरा कुछ भी कहना इसलिए गलत है क्योंकि हंस की उपलब्धियों की चर्चा करना पाठकों का काम है मेरा नहीं। कुछ पाठक तो यह भी कहते हैं कि ‘हंसज् ने जिस तरह की जागरूकता पाठकों में फैलाई है वैसी जागरूकता न कभी किसी पत्रिका ने फैलाई थी और न ही स्वतंत्रता के बाद के किसी भी आंदोलन ने। मगर मैं मानता हूं कि ये सब हिम्मत बढ़ाने की बातें हैं। मुझसे जो बन पड़ा वो मैंने अपने मित्रों की मदद से ही की। हां, ये सही है कि आप हमेशा एक आवेग, गुस्से और उत्तेजना में नहीं बने रहते। ठहराव भी आता है। हो सकता है ‘हंसज् में इधर कोई ठहराव आया हो, मगर शायद हम भारतीयों की आदत है कि जो कुछ पहले हो चुका है वही महान है। जो मिठाइयां और चाट हमने अपने बचपन में खाए थे वैसी आज कहीं नहीं मिलती। जबकि स्थिति यह है कि दोनों पकवानों की कलाओं और स्वाद में बहुत संपन्नता आई है। ‘हंसज् को लेकर तुम्हारी बातों में भी यही है। और यहां तुम्हारा पुराण मोह दिखाई देता है।


प्रश्न 5- ‘हंसज् के सलाना कार्यक्रम में हाल ही में डा. नामवर सिंह ने जिस तरह से दलित लेखक अजय नावरिया के लिए ‘लौंडाज् शब्द का इस्तेमाल किया है, उसकी जितनी भी भर्त्सना की जाए कम होगी। क्योंकि बिहार और उत्तर प्रदेश में ‘लौंडाज् शब्द के क्या मायने हैं इसको नामवर सिंह से बेहतर कौन जानता होगा। लेकिन यह भी तो सच है कि आप अजय नावरिया को जरूरत से ज्यादा प्रमोट करते रहते हैं। आपके इसी प्रमोशन के कारण बहुत सारे दलित लेखक भी आपके खिलाफ हो गए हैं?

-इसका जवाब मैं ‘हंसज् के अगस्त अंक में दे चुका हूं। वैसे दिल्ली और आगरा की मुसलमानी संस्कृति में ‘लौंडाज् शब्द प्यार में इस्तेमाल किया जाता है। ‘यह आप का लौंडा है।ज् बल्कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो यह शब्द ‘लमड़ाज् हो जाता है। खर! हिन्दी का तीसरा शब्द ‘चेष्टाज् मराठी में अश्लील प्रयत्नों के लिए इस्तेमाल होता है, जिस तरह हिन्दी के ‘बालज् और बांग्ला के ‘बालज् में जमीन आसमान का अंतर है। इसलिए इतना ही नहीं नामवरजी की बाकी बातों को भी गंभीरता से लेने की क्या जरूरत है। वे कहते चाहे जो हों लेकिन वे मूलत: स्त्री, दलित या युवा विमर्श को बहुत समर्थन नहीं देते। ये उनका पुराना रवैया है। उस दिन वे राहुल गांधी की युवा राजनीति को भी साहित्य के आगे चराते रहे।


प्रश्न 6- हिन्दी में दलित विमर्श को शुरू हुए 20 वर्षो से अधिक हो गए हैं। इन वर्षो के दरम्यान एक-से-एक ब्रिलिएंट दलित चिंतक पैदा हुए हैं। मसलन डा. धर्मवीर, कंवल भारती, तुलसीराम, चंद्रभान प्रसाद। इस क्रम में मैं राजेन्द्र यादव और मुद्राराक्षस का भी नाम लेना चाहूंगा। हालांकि आप और मुद्राराक्षस दलित नहीं हैं। मेरे कहने का मतलब यह है कि जिस दलित विमर्श ने एक-से-एक धुरंधर रैडिकल विचारक पैदा किए हों और जिनके विचारों की प्रखरता ने हजार वर्षो के सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य पर सवाल खड़े कर दिए हों, वहां कायदे का एक भी कविता संग्रह, कहानी संग्रह या उपन्यास देखने को क्यों नहीं मिलता? क्या मैं यह मानकर चलूं कि अभी हिन्दी का दलित विमर्श कुछ अच्छी आत्मकथाओं को यदि छोड़ दिया जाए तो रचनात्मक साहित्य की पीठिका ही तैयार कर रहा है?

- हो सकता है कि तुम्हारी बात सही हो। मगर मुङो ऐसा लगता है कि जिस साहित्य में विचार, विवेचना और विश्लेषण का वर्चस्व होता है वहां रचनात्मक साहित्य प्राय: कमजोर हो जाता है या सिर्फ फार्मूलाबद्ध होकर के ही रह जाता है। मार्क्‍सवादी वैचारिकता को लेकर जो साहित्य रचा गया है उसमें भी बहुत कुछ ऐसा ही है। और यह हमें याद भी नहीं रहता या इसे हम याद भी रखने लायक नहीं समझते। वैसे भी हिन्दी में दलित चेतना राजनीतिक आंदोलनों के बाद आई है। जबकि मराठी में फुले से लेकर अब तक दलित जागरूकता ने ही वहां के रचनाकार और विचारक पैदा किए। चूंकि दलितों और स्त्रियों के पास अपना कोई इतिहास नहीं होता और वहां सिर्फ मालिकों के शासन में रहने वाले स्वामीभक्तों का इतिहास होता है। इसलिए दलित और स्त्रियां अपने आपसे ही इतिहास का प्रारंभ मानती हैं और यह सही भी है। स्वाभाविक है कि ऐसी मानसिकता में आत्मकथाएं ही आएंगी जो वर्तमान से लेकर भविष्य की ओर जाती हुई दिखाई देंगी। वर्तमान से अतीत की ओर तो सिर्फ यातना, प्रताड़ना और शोषण का लंबा इतिहास है इसलिए मैंने पहले भी कई बार कहा है कि हमारे साहित्य का मूलमंत्र ‘सत्यम, शिवम, सुंदरमज् का कुलीनतावादी दृष्टिकोण नहीं हो सकता, बल्कि यातना, संघर्ष और स्वप्न का जुझारू सिद्धांत है।


प्रश्न 7- संजीव और उदय प्रकाश हमारे दौर के दो विशिष्ट कथाकार हैं। संजीव एक ओर जहां, चालू शब्दों में कहें कि प्रेमचंद की परंपरा को लगातार विकसित और समृद्ध करते जा रहे हैं, वहीं दूसरी ओर उदय प्रकाश साहित्य की दुनिया में जहां कुछ भी नया हो रहा है, उसका प्रयोग बहुत ही खूबसूरती से अपनी कहानियों में करते दीख रहे हैं। कहानी की सेहत के ख्याल से इसीलिए दोनों का महत्व है। लेकिन पिछले कुछ दिनों से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उदय प्रकाश के नाम को जिस तरह से उछाला जा रहा है और संजीव के नाम को भुलाने का प्रयास दिख रहा है, उसके पीछे आप क्या देखते हैं?

-संजीव शुद्ध भारतीय गांवों और कस्बों की संघर्ष चेतना के कथाकार हैं। उनके पास जो जानकारियां, शोध और कलात्मक संतुलन हैं वे शायद ही हिन्दी के किसी लेखक के पास हों। निश्चय ही उनकी रचनाओं में प्रेमचंद से ज्यादा विविधता ही नहीं बल्कि अनेक तरह के पात्रों की विशेषताएं भी हैं। उदय प्रकाश देशी-विदेशी रचनाकारों के गंभीर पाठक रहे हैं। उनके पास एक चमकदार और विचारगर्भी भाषा है और वे अपनी भाषा से खेलना जानते हैं। इसी के बल पर वे लम्बे-लम्बे विवरणों और नाटकीयता से पाठकों को बांधे रखते हैं। उन्होंने बहुत कम कहानियां लिखी हैं लेकिन वे निश्चय ही बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि हिन्दी के ये दोनों कथाकार अपने-अपने क्षेत्र में विलक्षण हैं। पाठकों का दृष्टिकोण इनके प्रति वही है जो बड़े और छोटे शहरों के समाजकर्मियों की होती है। एक मीडिया के केन्द्र में होता है और दूसरा सिर्फ स्थानीय हो सकता है, जो स्थानीय है वह ज्यादा मूलगामी कार्य कर रहा है।

प्रश्न 8- हिन्दी अकादमी के विवाद का पटाक्षेप हो गया है। अशोक चक्रधर उपाध्यक्ष के रूप में अकादमी के कार्यो को अंजाम दे रहे हैं। आप लोगों का ‘चक्रधर मिशनज् फेल हो चुका है। अशोक चक्रधर के पीछे आपलोग लट्ठ लेकर इसलिए पड़ गए क्योंकि वे एक मंचीय और हास्य कवि हैं। हिन्दी साहित्य में अभी भी हास्य और लोकप्रियता को इस तरह से देखा जाता है जसे ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत।ज् मेरा मानना है कि जीवन में और प्रकृति में जिस तरह की डायवर्सिटी है, मतलब जीवन में यदि गंभीरता है तो हास्य भी है। दुख है तो सुख भी है, घृणा है तो प्रेम भी है। मतलब जीवन और प्रकृति में एकरसता नहीं है। तो फिर साहित्य में यह डायवर्सिटी क्यों नहीं होनी चाहिए?

- शब्दों के ये विलोम हमें कहीं नहीं ले जाते। व्यक्तिगत रूप से अशोक चक्रधर को मैं आज भी बहुत प्यार करता हूं और मानता हूं कि उन्होंने कविता के मंच को जो सम्मान वापस दिलाया है उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। ज्यादातर कवि जो राजू श्रीवास्तव के प्रतिलोम दिखाई देते हैं। मगर मैं अपने बेटे को चाहे जितना प्यार करता होऊं और उसकी योग्यता से खुद भी आतंकित होऊं लेकिन मैं उसे शायद युद्ध के किसी मोर्चे का इंचार्ज बनाने से पहले कई बार सोचूं। पिछला अध्यक्ष तो लगभग निष्क्रिय ही था। मगर अशोक एक एजेंट के तौर पर लाए गए हैं। उनका समर्थन करने वालों के नाम अगर आप देखेंगे तो पाएंगे कि या तो सब भाजपा से जुड़े रहे हैं या लगभग ढुलमुल किस्म के रचनाकार हैं। पुरानी कार्यकारिणी के लगभग सारे महत्वपूर्ण सदस्यों ने त्यागपत्र दे दिए हैं। अब अशोक अपने मत के उन्हीं लोगों को कार्यकारिणी में लाएंगे जो उनकी योजनाओं को कार्यरूप दे सकें। इस प्रक्रिया में सबसे अधिक खेदजनक कृष्ण बलदेव वैद को बदनाम करना है। भाजपा के एक कार्यकर्ता ने तो बाकायदा वैद की रचनाओं को अश्लील रेखांकित कर दिया है। मुङो नहीं लगता कि कृष्ण बलदेव जसी भाषा, शब्दों पर उनका अधिकार और खिलंदड़ी शैली किसी और लेखक के पास है। उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टियों के साथ अपने पात्रों की मानसिकताओं को पकड़ने की कोशिश की है। अगर तथाकथित अश्लीलता और पोर्नोग्राफी के आधार पर ही साहित्य का मूल्यांकन करना हो तो कालिदास का तुसंहार, जयदेव के रति वर्णन या रीतिकाल को कूड़े में डाल देना चाहिए। चलिए कृष्ण बलदेव वैद न सही, लेकिन केदारनाथ सिंह और रमणिका गुप्ता को तो इस सम्मान का मैं सबसे बड़ा अधिकारी मानता हूं। केदारनाथ सिंह के बारे में कुछ कहना जरूरी नहीं है, मगर जिस लगन और समर्थन से रमणिका गुप्ता ने पूर्वोत्तर प्रांतों के आदिवासियों पर काम किया है वह अभी तक किसी ने नहीं किया है। स्त्री और दलितों का एजेंडा तो है ही लेकिन आदिवासियों पर किया गया उनका यह काम बड़े से बड़े सम्मान का अधिकारी है।

Wednesday, August 26, 2009

एक माया मिस्र की

मधुकर उपाध्याय
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती अपनी मूर्तियों के कारण सुर्खियों और विवाद में हैं। अमरत्व की कामना, इतिहास में गुम न हो जाने की आशंका और इसलिए अपने को समाज पर थोपने की कोशिश कम ही कामयाब होती है। मिस्र की महिला बादशाह हातशेपसत की कहानी भी कुछ यही बताती है। उसे भी यही खौफ था कि इतिहास कहीं मुङो भुला न दे। उसने भी मूर्तियां बनवाईं। 1458 ईसा पूर्व हातशेपसत की मृत्यु हुई तब शासक बने उनके सौतेले बेटे ने अपनी मां के सारे स्मारक नष्ट करने का आदेश दिया। शाही मैदान से उसकी ममी भी हटवा दी। फिर हातशेपसत का नाम जिंदा है। तो क्या इतिहास को मिटा देने की कोशिश में समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की तरह ही नाकाम रहती है।
कई बार ऐसा लगता है कि कुछ चीजें पहली बार हो रही हैं और ऐसी चीजों के लिए ‘इतिहास अपने को दोहराता हैज् एक बेमानी कथन है। दरअसल, इसकी असली वजह शायद यह है कि इतिहास की हमारी समझ और पीछे जाकर चीजें टटोलने की क्षमता सीमित है। जसे ही इतिहास का कोई नया पन्ना खुलता है, पता चलता है कि आज जो हो रहा है, वह कोई नई बात नहीं है। दुनिया ऐसे लोग और उनकी बेमिसाल सनक पहले भी देख चुकी है।
दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक मिस्र की सभ्यता है, जिसका लिखित इतिहास सवा पांच हजार साल पुराना है। उसके प्राचीनतम साक्ष्य तीन हजार वर्ष ईसा पूर्व से पहले के हैं। उसकी वंश परंपरा पांच हजार साल पहले शुरू होती है और लगातार तीन हजार साल तक चलती है। इसी परंपरा में बीस वर्ष का एक ऐसा कालखंड आता है, जिसमें मिस्र की बादशाहत एक महिला के हाथ में थी। सामाजिक स्थितियों और परंपराओं में महिला शासक की स्वीकार्यता नहीं थी। इसलिए उस ‘महिला बादशाह-हातशेपसतज् को तकरीबन पूरा कार्यकाल पुरुष बनकर पूरा करना पड़ा। इस घटना का उल्लेख दस्तावेजों में है कि उसे ‘शी किंगज् कहा जाता था। हातशेपसत का कार्यकाल असाधारण उपलब्धियों वाला था। वह एक कुशल शासक थी। नई इमारतें तामीर कराने में उसकी दिलचस्पी थी। राजकाज से आम लोगों को कोई शिकायत नहीं थी। बल्कि उसके बीस साल के कार्यकाल को मिस्र के स्वर्णिम युग की तरह याद किया जाता है। हातशेपसत का कार्यकाल 1479 से 1458 ईसा पूर्व में था। एक अध्ययन के अनुसार, हातशेपसत की मां अहमोज एक राजा की पुत्री थी। उसके पिता टुटमोज प्रथम सही मायनों में राजशाही खानदान के नहीं थे। इसकी वजह से हातशेपसत को थोड़ी सामाजिक स्वीकार्यता मिली, जिसका फायदा उठाकर उसने अपने पति के निधन के बाद सत्ता पर कब्जा कर लिया। हालांकि टुटमोज प्रथम ने अपने सौतेले बेटे को गद्दी सौंपी थी लेकिन वह कभी सत्ता में रह नहीं पाया।
पूरा इतिहास कुछ इस तरह गडमड था कि हातशेपसत की मौजूदगी और बेहतरीन सत्ता संचालन के बावजूद उसे स्थापित करने के ठोस प्रमाण नहीं मिल रहे थे। कुछ अमेरिकी और मिस्री विद्वानों को अचानक एक दिन एक खुली कब्र मिली, जिसके बाहर एक ममी पड़ी थी। यह अनुमान लगाना किसी के लिए भी असंभव होता कि मिस्र के शासक रह चुके किसी व्यक्ति के साथ इस तरह का व्यवहार हो सकता है कि उसकी ममी खुले में पड़ी हो। यह बात सौ साल पुरानी है। करीब 75 साल पहले एक और मिस्री विद्वान को उस ममी के पास सोने के गहने मिले। इससे उसे संदेह हुआ कि यह ममी किसी साधारण व्यक्ति की नहीं हो सकती। पूरी चिकित्सकीय प्रक्रिया के बावजूद ममी का काफी हिस्सा नष्ट हो गया था और ले-देकर एक दांत सही सलामत मिला। उसी दांत के सहारे हातशेपसत की पहचान हुई और फिर उस ममी को सम्मानपूर्वक स्थापित किया गया।

हातशेपसत का शासन दो हिस्सों में विभाजित किया जा सकता है। पहले हिस्से में करीब छह वर्ष तक वह टुटमोज द्वितीय के बेटे के उत्तराधिकारी के रूप में शासन करती रही। सारे फैसले उसके होते थे लेकिन नाम उस नाबालिग बच्चे का रहता था। छह साल बाद हातशेपसत ने नाबालिग टुटमोज तृतीय को बेदखल कर दिया और खुद सत्ता संभाल ली। इसके बावजूद महिला के रूप में समाज के सामने जाने का साहस हातशेपसत नहीं जुटा सकी और हमेशा पुरुषों के कपड़े पहनती रही। इतना ही नहीं, उस समय की तमाम प्रतिमाओं में भी उसे पुरुष की तरह चित्रित किया गया।
शक्तिशाली फरोहा होने के बावजूद समाज द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने के डर की वजह से हातशेपसत में एक तरह का जटिल व्यक्तित्व विकसित हुआ। उसे यह डर हमेशा लगा रहता था कि ताकतवर पुरुष प्रधान मिस्री समाज उसे खारिज कर देगा। उसका योगदान भुला देगा और उसका अस्तित्व इतिहास से मिटा दिया जाएगा। साढ़े तीन हजार साल पुरानी इस इतिहास-कथा ने हातशेपसत के इसी डर और चिंता के कारण एक नया मोड़ लिया। उसने तय कर लिया कि आगे का पूरा शासन वह एक पुरुष फरोहा की तरह चलाएगी और एक अभियान चलाकर समाज में अपनी छवि एक पुरुष की तरह स्थापित करेगी। उसकी बाद की प्रतिमाओं में उसके महिला होने के संकेत तक नहीं मिलते बल्कि चेहरे पर दाढ़ी भी दिखती है। ऐसे कई दस्तावेज मिलते हैं, जिसमें हातशेपसत ने कहा कि वह शासन करने के लिए भेजी गई ईश्वरीय देन है। इसी दौरान उसने यह फैसला लिया कि पूरे साम्राज्य में उसकी विराट प्रतिमाएं लगाई जाएंगी, ताकि किसी को उसके फरोहा होने पर संदेह न रह जाए। मिस्र के छोटे से छोटे इलाके तक संदेश भेजे गए कि हातशेपसत बादशाह है और कोई उसे चुनौती देने की कोशिश न करे। इसी के साथ उसने एक शब्द गढ़ा, जिसे ‘रेख्तज् कहते थे और इसका अर्थ था-आम लोग। मिस्र की जनता को हातशेपसत प्राय: ‘मेरे रेख्तज् कहती थी और हर फैसला यह कहकर करती थी कि रेख्त की राय यही है। लोकप्रियता हासिल करने की सारी सीमाएं हातशेपसत ने तोड़ दीं। हातशेपसत ने लगभग बीस साल के अपने शासन के दौरान हमेशा यह ख्याल रखा कि उसके किसी फैसले पर नील नदी के दोनों ओर बसे रेख्त की राय क्या होगी। एक दस्तावेज में उसने यहां तक लिखा कि अगर रेख्त की मर्जी नहीं होगी तो मेरा दिल धड़कना बंद कर देगा।
हातशेपसत की मृत्यु 1458 ईसा पूर्व में हुई, जिसके बाद उसके सौतेले बेटे टुटमोज तृतीय ने उन्नीसवें फरोहा के रूप में सत्ता संभाली। अपनी सौतेली मां की तरह टुटमोज तृतीय को भी स्मारक बनाने का शौक था। मुर्गी को भोजन की तरह इस्तेमाल करने की परंपरा उसी ने शुरू की और उन्नीस साल के शासन में सत्रह सैनिक अभियान चलाए और कामयाब रहा। अपने शासनकाल के अंतिम दौर में उसने अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट होकर आराम से रहने की जगह एक अजीबोगरीब फैसला किया। यह फैसला था-अपनी सौतेली मां हातशेपसत द्वारा निर्मित सारे स्मारक और उसकी सारी प्रतिमाएं नष्ट कर देने का ताकि इतिहास में उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाए। टुटमोज तृतीय अपने इस अभियान में भी सफल रहा और अपनी सौतेली मां को उसने साढ़े तीन हजार साल के लिए इतिहास से गायब कर दिया। इतना ही नहीं, उसने अपनी सौतेली मां की ममी को भी फरोहा के शाही मैदान से हटा दिया। उसे एक ऐसी जगह ले जाकर रखा, जहां किसी को संदेह ही न हो कि वह हातशेपसत हो सकती है।
निश्चित तौर पर अमरत्व की कामना, इतिहास में खो जाने के डर और समाज में अपनी स्वीकार्यता थोपने की कोशिश में किए गए प्रयास कभी पूरी तरह कामयाब नहीं हो सकते। लेकिन साथ ही यह भी लगता है कि इतिहास को नष्ट करने या उसे मिटा देने की कोशिश भी उतनी ही नाकामयाब होती है।

Thursday, August 13, 2009

सच का कैसे हो सामना

रज्जन सुल्तानपुरी सुल्तानपुर के हैं कि नहीं ये प्रमाणिक नहीं है लेकिन सुल्तानपुरी उनके नाम के साथ ऐसा चिपका है जसे जलेबी के साथ चाशनी चिपक जाती है। बस उन्होंने किसी तरह खुद को चींटिंयों से बचा कर रखा है नहीं तो उन्हे चींटे कब के चट कर गए होते। उनके स्वभाव से यूं तो सभी वाकिफ थे लेकिन वह नजर-ए-इनायत करते-करते, कब तीर-ए-नज़्ार कर देगें किसी को पता नहीं चलता। अगर बच गए तो तकदीर अच्छी अगर तीर लग गई तो भगवान बचाए...।
उनसे लोग प्रश्न पूछने से कतराते हैं क्योंकि दोहा, छंद यही नहीं विभिन्न विधाओं में वह उसका उत्तर देने में सक्षम हैं। उनकी प्रशंसा कब आलोचना बन जाए कहा नहीं जा सकता। सीधे प्रश्नों के उत्तर भी लताओं जसे होते हैं। समसामयिक मुद्दा दाल पर उनकी परिचर्चा सुनने कई लोग आए, यह परिचर्चा उनके किसी तथाकथित साहित्यकार मित्र छज्जन ने प्रायोजित की थी। वजह यह थी कि इसी बहाने लोग उन्हे भी जान जाएंगे। हुआ भी कुछ ऐसा ही, सभा में तमाम तरह के साहित्यिक और गैर साहित्यिक प्रश्न उठाए गए। बात आते-आते मंहगाई पर टिक गई। कु छ लोग उन्हे राजनीतिक प्रतिनिधि समझ कर प्रश्नों के तीर मारे जा रहे थे लेकि न सभी प्रश्नों के उत्तर वह सधे हुए देते थे। किसी ने अरहर के दाल की चर्चा कर दी, उन्होंने कहा कि अरहर की दाल ने उड़द, मटर, मसूर की लाज रख ली नहीं तो इनको कौन पूछता। अब मूंग की दाल खिचड़ी केवल बीमार ही नहीं खाएंगे, बल्कि मुस्टंडे भी चखेंगे। बात यहीं खत्म नहीं हुई। एक सज्जन ने सवाल उठाया कि दाल के साथ चीनी का भी मामला कुछ ऐसा ही होता जा रहा है। इस पर उनका जवाब था कि चीनी तो शुरू से ही बुर्जआ वर्ग के जीभ का स्वाद बढ़ाती आई है यह तो मजदूरों की दुश्मन है। अब तो अमीर लोग भी मधुमेह के कारण इससे तौबा कर रहे हैं। सभा अब पूरी तरह से असाहित्यिक हो चुकी थी कि किसी सज्जन ने कहा सुना है आप कवि टाइप हृदय रखते हैं उन्होंने गिलौरी मुंह में दबाकर दो इंच में मुस्कान बिखेरी बाद में पता चला कि कुर्ता खराब हो गया है।
इसके बाद रज्जन सुल्तानपुरी ने रिक्शा लिया और बड़े अपनत्व के साथ चल निकले रास्ते भर जी भर के अपनी योग्यता के बारे में बताया उसकी योग्यता जाना। लेकिन उतरते समय किराया को लेकर झकझक हो गई, बात हाथापाई तक आ गई। रिक्शे वाला तुनक खड़ा हो गया और बोला, मां का दूध पिया है तो आ जा.. इस पर रज्जन सुल्तानपुरी ने कहा मां का दूध तो सब पीते हैं तू अमूल या मदर डेरी का दूध पिया है तो हाथ आजमा ले.. रिक्शावाला सच का सामना नहीं कर पाया।
अभिनव उपाध्याय

Wednesday, August 12, 2009

चरणदास चोर : खेलो और, और!


मो. रजा़

मशहूर नाटककार हबीब तनवीर का नाटक ‘चरनदास चोर फिर सुर्खियों में है। मंच पर कई बार अपनी काबिलियत साबित कर चुका यह मशहूर नाटक अब राजनीतिक गलियारों में अटक गया है। ‘चरनदास चोर नाटक को कुछ समुदायों की भावनाओं पर आघात करने वाला बताकर छत्तीसगढ़ की रमन सिंह सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया है। इससे कला मंच से जुड़े लोगों और बुद्धिजीवियों में रोष हैं। इन लोगों का कहना है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है।
‘चरनदास चोर नाटक कई बरसों से खेला जा रहा है। देश-दुनिया में उसको सराहा गया है। नाटक में ऐसा कुछ नहीं है जिससे किसी समुदाय को ठेस पहुंचे। यह नाटक ईमानदारी और सच बोलने की सीख देता है। यह कोई नया नाटक नहीं है बल्कि 1975 से लगातार मंचित हो रहा है। अपने जमाने में यह नाटक इतना मशहूर हुआ कि जाने-माने निर्देशक श्याम बेनेगल ने स्मिता पाटिल को लेकर एक फिल्म भी बनाई। यह फिल्म काफी चर्चित रही। छत्तीसगढ़ सरकार की इस करनी पर संस्कृतिकर्मियों, साहित्यकारों में बेहद क्षोभ है। हबीब तनवीर साहब का निधन हुए अभी दो महीने हुए हैं। उनके नाटक को प्रतिबंधित करने को मरणोपरांत उनका अपमान माना जा रहा है। वैसे भी यह सीधे-सीधे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन है। हबीब तनवीर का यह नाटक दुनिया भर में मशहूर और प्रशंसित हुआ। उनके नाटकों ने जन-मानस को गहरे तक प्रभावित किया। हबीब साहब और उनकी कला का सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर असर अगाध है। सुप्रसिद्ध कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी ने भी अपने स्तंभ ‘कभी-कभार में लिखा है-‘देश में ही नहीं, किसी हद तक सारी दुनिया में अगर छत्तीसगढ़ किसी एक व्यक्ति के नाम से जाना जाता है तो वह हबीब तनवीर है। आज भी वे छत्तीसगढ़ की सबसे उजली और अमिट तस्वीर हैं। उसी हबीब के नाटक को निहायत साम्प्रदायिक आधार पर प्रतिबंधित करने की हिमायत उसी छत्तीसगढ़ सरकार ने की है। विनायक सेन की बेवजह गिरफ्तारी की देश भर में निंदा होती रही है। नक्सलियों की चुनौती का सामना करने में विफल यह सरकार उनके जनसंहार का अमानवीय तरीका अपना रही है। उसे हाल के चुनावों आदि में जो सफलता मिली है वह उसकी इस लांछित छवि को धो-पोंछ नहीं सकती। उसने अब इस प्रतिबंध द्वारा उस छवि को और मलिन कर लिया है। उसकी सख्त निंदा तो की ही जानी चाहिए। उसके अलावा छत्तीसगढ़ सरकार के किसी आयोजन में न सिर्फ उस प्रदेश के लेखकों-कलाकारों को भाग न लेकर उसका बहिष्कार कम से कम तब तक करना चाहिए जब तक यह प्रतिबंध वापस नहीं लिया जाता।ज्
ऑल इंडिया रेडियो में चीफ प्रोड्यूसर ड्रामा के पद से रिटायर सत्येन् शरत् इसे अज्ञानता से उपजा विवाद बताते हैं। वे कहते हैं कि इतने सालों बाद नाटक पर प्रतिबंध लगाया जाना सरासर गलत है। उन्होंने कहा कि 1975 से लगातार खेले जा रहे इस नाटक का प्रत्येक शो हाउसफुल रहा है। उन्होंने कहा कि ‘चरनदास चोर को 1982 में एडिनबर्ग फ्रिंज महोत्सव में पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। उसके बाद नाटक के विषय में यह कहा जाना कि यह किसी समुदाय के लोगों की आस्था को ठेस पहुंचाता है, गलत है। उन्होंने कहा कि नाटक के माध्यम से यह बताने की कोशिश की गई है कि एक चोर जो झूठ न बोलने की कसम खाता है, अंत में उसे मार दिया जाता है।
दरअसल नाटक के बीच में हबीब जी द्वारा चोर के पात्र को एक गाने के माध्यम से दर्शाया गया है ‘एक चोर ने रंग जमाया सच बोल के, संसार में नाम कमाया सच बोल के, धोखे में गुरु को वचन दिया, सच्चाई निभाने का प्रण किया और ऐसा प्रण किया कि पूरा निभा लिया। चोर चरनदास कहलाया सच बोल के।
संक्षेप में इस नाटक की कथा इस प्रकार है ‘एक चोर जिसका यह मानना है कि ईश्वर ने किसी को राजा बनाया, किसी को मंत्री बनाया, मुङो ईश्वर ने चोर बनाया इसलिए मैं चोरी करूंगा। एक दिन चरनदास एक सोने की थाली चोरी कर भाग रहा था उसके पीछे महल के सिपाही पड़े थे। बचने के लिए चरनदास एक ढोंगी के पास चला जाता है। सिपाही आकर उस ढोंगी से पूछते हैं कि क्या तुमने किसी चोर को देखा, वो कहता है कि नहीं। सिपाही चले जाते हैं। ढोंगी चरनदास से कहता है कि तुम चोरी छोड़ दो। चरनदास कहता है कि मैं चोरी नहीं छोड़ सकता हूं। बदले में ढोंगी चरनदास से चार वचन लेता है। पहला तुम कभी किसी देश के राजा नहीं बनोगे। दूसरा सोने-चांदी के बर्तन में खाना नहीं खाओगे। तीसरा किसी रानी से शादी नहीं करोगे। चौथा, हाथी-घोड़े की सवारी नहीं करोगे। चरनदास तैयार हो जाता है अंत में वह चरनदास से एक और वचन लेता है कि तुम कभी झूठ नहीं बोलोगे। चरनदास कहता है कि अगर मैं सच बोलूंगा तो पकड़ा जाऊंगा। ढोंगी कहता तुम अगर मुङो ये वचन दोगे तभी मैं तुम्हें अपना शिष्य बनाऊंगा। चरनदास यह सोचकर यह सारे वचन दे देता है कि एक चोर के नसीब में सोने-चांदी के बर्तन में खाना खाना, हाथी घोड़े की सवारी करना आदि कहां लिखा है। लेकिन धीरे-धीरे ये सारी घटनाएं चरनदास के जीवन में आती हैं। एक दिन चरन दास महल से पांच सोने की मोहरे चुराता है। खजाने के सिपाही सोचते हैं कि चरनदास ने पांच मोहरे चुराई हैं मैं भी पांच चुरा लेता हूं और इल्जाम चरनदास पर जाएगा। लेकिन महल में चरनदास पांच सोने की मोहरे चुराने की बात स्वीकार करता है। रानी उसके सच बोलने की बात पर खुश हो जाती है और वह उसे छोड़ देती है। रानी सिपाहियों को चरनदास को बुलाने के लिए हाथी-घोड़े भेजती हैं कि जाओ चरनदास को ले आओ। चरनदास आने से मना कर देता। रानी उसे जेल में डाल देती है। जेल में उसे सोने के बर्तन में खाना खाने के लिए दिया जाता है। चरनदास खाना नहीं खाता। अंत में रानी उससे शादी करने के लिए कहती है चरनदास मना कर देता है। रानी कहती है कि तुम किसी को यह मत बताना कि मैंने तुमसे शादी के लिए कहा था। लेकिन चरनदास शादी की बात लोगों से बताने को कहता है जिस पर रानी कहती है कि अगर जिंदा बचोगे तो बताओगे और रानी सिपाहियों को बुलाकर उसे मरवा देती है। इस तरह इस नाटक का मार्मिक अंत होता है।
सत्येन् शरत् ने कहा कि आज हबीब तनवीर हमारे बीच नहीं हैं इसलिए इस तरह की बात की जा रही है। उन्होंने कहा कि आज हबीब साहब जिंदा होते तो उनकी कलम में वो ताकत थी कि इस विरोध का मुंहतोड़ जवाब देते। उन्होंने सरकार द्वारा नाटक पर प्रतिबंध लगाए जाने की कड़े शब्दों में आलोचना की है। नाटक का दर्शक यह क भी सोच भी नहीं सकता था कि सच बोलने की इतनी सजा दी जा सकती है या सच बोलना वाकई इतना खतरनाक साबित होगा। अब जहां लगातार झूठ का बोलबाला है वहां चरनदास चोर समाज को एक नई सीख देता है।

‘जिस लाहौर.... खूब वेख्या



सुप्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असगर वजाहत ने भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी को अपने मशहूर नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माई नई में उभारा था। इस नाटक को बेहद सराहा गया और देश-विदेश में इसके खूब मंचन हुए। हबीब तनवीर ने 1990 में इसे पहली बार दिल्ली में मंचित किया था। दो दशक बीत जाने के बाद भी इसे बराबर खेला जा रहा है। हबीब तनवीर की याद में अब इसे चौदह अगस्त को वाशिंगटन में खेला जाएगा। इस नाटक को लेकर मोहम्मद रजा ने असगर वजाहत से बातचीत की है। उसी पर आधारित यह लेख।

भारत-पाकिस्तान विभाजन को छह दशक से भी ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन विभाजन का दर्द आज भी दोनों देशों के लोगों के दिलों में एक नासूर बनकर जिंदा है। विभाजन के इसी दर्द को हिन्दी के प्रसिद्ध कहानीकार-नाटककार असग़र वजाहत ने अपने नाटक ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या ओ जन्माइ नई में प्रस्तुत किया है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या का सबसे पहले मंचन मशहूर नाटककार स्व. हबीब तनवीर ने दिल्ली के श्रीराम सेंटर में 27 सितंबर 1990 को किया था। नाटक को उम्मीद से ज्यादा सफलता मिली। इसके बाद नाटक का कई देशों और भाषाओं में मंचन किया गया, जिसे लोगों ने खूब सराहा। नाटक का दिल्ली, मुंबई, वाशिंगटन, लंदन और सिडनी जसे शहरों में भी मंचन किया गया, जिससे नाटक को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी खूब ख्याति मिली। इसी कड़ी में वाशिगंटन के जॉन एफ केनेडी सेंटर में नाटककार हबीब तनवीर की याद में 14 अगस्त 2009 को नाटक का मंचन किया जा रहा है।
‘जिस लाहौर नहीं वेख्या की विषयवस्तु का सूत्र उर्दू के पत्रकार संतोष भारती की किताब ‘लाहौरनामा की देन है। संतोष भारती 1947 में लाहौर से दिल्ली आ गए थे। इस दौरान हुए दंगों में संतोष के भाई की दंगाइयों ने हत्या कर दी थी।
लेखक का संबंध उस पंजाब से नहीं है, जिसने विभाजन के दर्द को ङोला और न वे निजी रूप से उस युग के साक्षी रहे हैं, लेकिन उन्होंने विभाजन के उस युग पर कलात्मक ढंग से लिखा है। असगर वजाहत ने ‘जिस लाहौर नहीं वेख्या नाटक को केवल मानवीय त्रासदी तक सीमित नहीं किया है, बल्कि दोनों समुदायों के मनोविज्ञान को समझने का प्रयास किया है। इस प्रयास का उद्देश्य यह बताता है कि दोनों समुदायों के बीच क्या हुआ कि सांस्कृतिक एकता, मोहल्लेदारी, प्रेम, विश्वास और भाईचारा समाप्त हो गया था। लेखक ने यह दर्शाया है कि समाजविरोधी तत्व किस तरह से धर्म का फायदा उठाते हैं। पात्रों का विकास तार्किक है तथा नाटक में पंजाब और लखनऊ की संस्कृतियों का मानवीय स्तर पर समागम अत्यंत संवेदनशील है। बुद्धिजीवियों और साधारण जनता के बीच का जो संबंध होना चाहिए, वह नाटककार ने मौलवी, कवि और जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने वाले पात्रों के माध्यम से दर्शाया है। नाटक का जो नया पक्ष लेखक को अन्य लेखकों से अलग करता है, वह यह है कि उसमें मौलवी को संकुचित विचारों वाला दकियानूसी नहीं चित्रित किया गया है। असगर वजाहत का मौलवी खलनायक नहीं है। वह हर तरह से मानवीय है। मस्जिद में मौलवी की हत्या एक प्रतीक है, जिसके माध्यम से स्वार्थी तत्वों द्वारा धर्म तथा जीवन के महान मूल्यों को नष्ट कर देने की बात कही गई है।
नाटक में भारत-पाकिस्तान विभाजन के बाद पैदा हुई स्थिति को बड़े ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। नाटक में दिखाया गया है कि लखनऊ से विस्थापित एक परिवार को लाहौर में 22 कमरों की एक बड़ी सी हवेली मिलती है। लेकिन उन्हें अपने घर के मुकाबले यह हवेली कुछ भी नहीं लगती। विभाजन के बाद जहां काफी सारे हिंदू पाकिस्तान से हिन्दुस्तान चले जाते हैं, वहीं एक बुढ़िया अपना घर छोड़कर नहीं जाती और फसाद के वक्त अपने घर में छिप जाती है। उसके घर को खाली समझकर कस्टोडियन वालों ने लखनऊ से विस्थापित एक परिवार सिकंदर मिर्जा को एलाट कर दी जाती है। जब इस परिवार को पता चलता है कि यह बुढ़िया इस हवेली में है तो वो उसे वहां से हटाने की काफी कोशिश करते हैं।
इसी सिलसिले में सिकंदर मिर्जा का लड़का मोहल्ले के ही एक पहलवान से उस बुढ़िया को हटाने की बात करता है। पहलवान सिकंदर मिर्जा से बुढ़िया को जान से मारने की बात कहता है, जिसे मिर्जा और उसके परिवार वाले मना कर देते हैं। धीरे-धीरे उस बुढ़िया की हमदर्दी सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ पूरे मोहल्ले में रहने वाले सभी मुस्लिम परिवार से हो जाती है। एक दिन अचानक उस बुढ़िया की मौत हो जाती है। उसकी मौत से सिकंदर मिर्जा के साथ-साथ मोहल्ले वालों को बहुत दुख होता है। बुढ़िया के क्रिया-कर्म के लिए मौलवी से सलाह ली जाती है तो मौलवी कहता है कि बुढ़िया हिन्दू थी, लिहाजा उसका अंतिम संस्कार उसी के धर्म के अनुसार किया जाना चाहिए। मौलवी की ये बात पहलवान को नागवार गुजरती है और वे मस्जिद में मौलवी की हत्या कर देता है।
वर्तमान में इस जब इस वैश्विक व्यवस्था में आतंकवाद, इस्लामिक कट्टरवाद और उपनिवेशवाद के दौर में मुसलमानों की छवि खराब की जा रही है और जहां मूल्य कमजोर होते जा रहे हैं, लोग अपनी जड़ों से कटते जा रहे हैं, वहां यह नाटक एक विभाजन की त्रासदी के बाद लोगों के मनोभावों को समझने और संवेदनाओं को सुरक्षित रखते हुए मूल्यों को संरक्षित करने का प्रयास करते हैं। दर्शक इसे देखकर विभाजन के छह दशक बाद भी इससे जुड़ा हुआ महसूस करता है।

(यह चित्र जिन्हे लाहौर नहीं वेख्या के प्रथम मंचन का है। )

Sunday, August 9, 2009

खुश रखे, खुश करे सो पुरस्कार !

विश्वनाथ त्रिपाठी
पुरस्कारों पर बात करना मेरा प्रिय विषय नहीं है। कुछ साहित्यकार ऐसे हो सकते हैं जो पुरस्कार पाने की उम्मीद रखते हैं और पुरस्कार न पाने से कुंठित होते हैं। कु छ ऐसे भी साहित्यकार हो सकते हैं जो पुरस्कारों की दौड़ में नहीं रहते हैं। कुछ लोग जो अपने लेखन से इतना संतुष्ट हों या पाठकों का प्रेम मिला हो वो पुरस्कार न मिलने से चिंतित नहीं होते। पुरस्कारों की चिंता इसके व्यवस्थापकों को करनी चाहिए रचनाकारों को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए कि उन्हे पुरस्कार मिला या नहीं। यदि किसी को पुरस्कार मिलता है तो बाकी रचनाकारों को इसमें खुशी होनी चाहिए उसे खुशी-खुशी मनाना चाहिए।
हिन्दी जगत में वह स्थिति आदर्श होती कि जिसे पुरस्कार के लिए नामित किया है वह स्वयं दूसरे को हकदार बताता। साहित्य जगत में ऐसी स्थितियां होनी चाहिए लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ है। अमरकांत की पुस्तक ‘इन्हीं हथियारों सेज् को और मेरी पुस्तक ‘नंगा तलाई का गांवज् को साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए चुनना था, निर्णायक डा. निर्मला जन ने जब मुङो बताया कि उन्होने अमरकांत की पुस्तक को चुना है तो मैंने कहा कि आप ने ऐसा निर्णय लेकर स्वयं को, मुङो और अकादमी को कलंकित होने से बचा लिया। कहां अमरकांत और कहां मैं! उन्हे यह पुरस्कार बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। जब मैंने अमरकांत को फोन करके बधाई दी तो उन्होंने सरल स्वर में कहा था कि यह पुरस्कार आपको है। मुङो अफसोस है कि मैं यह बात कह रहा हूं लेकिन मैं शायद एकाध समीक्षक में से हूं जिसने इस उपन्यास की प्रशंसा की थी।
जो लोग साहित्य उद्योग में रहते हैं जो अच्छाइयां न देखकर बुराइयां देखते हैं उनका नाम ज्यादा होता है। अशोक वाजपेयी ने भी साहित्य अकादमी सम्मान लेने के बाद विनोद शुक्ल को यह पुरस्कार मिलने की बात की थी। डा. राम विलास शर्मा की कृति ‘निराला की साहित्य साधनाज् को जब चुना गया तो इसमें तीन निर्णायक थे, सुमित्रा नंदन पंत, बाल कृष्ण राव और पं हजारी प्रसाद द्विवेदी। इस पुस्तक में पंत की छवि को ध्वस्त किया गया है। बाल कृष्ण राव की भी आलोचना की गई है। इन दोनों ने इस पुस्तक की संस्तुति की और पंत ने तो कहा कि बाकी सभी किताबों को कूूड़े में फेंक देना चाहिए।
जब हम साहित्य अकादमी पर बातें करते हैं तो सब बुरे ही नहीं दिखते। कई बड़े साहित्यकार हैं जिन्हे पुरस्कार नहीं मिला, निराला, रेणु, मुक्तिबोध आदि रचनाकारों को साहित्य अकादमी नहीं मिला। रचनाकारों के बड़े होने का मानदंड पुरस्कार नहीं हो सकता। साहित्य अकादमी की स्थापना नेहरु ने फ्रेंच अकादमी के आधार पर की थी। फ्रेंच अकादमी में 40 सदस्य होते थे जिन्हे चालीस कालजयी (फोर्टी मार्टल) कहा जाता है। इसके पहले अध्यक्ष पं नेहरू थे। मैं अच्छी तरह से जानता हूं कि उन्होंने न किसी का नाम प्रस्तावित किया था और न ही किसी का विरोध किया था। साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए दिनकर ने दबाव डाला था कि यशपाल के उपन्यास झूठा-सच को पुरस्कार न मिले क्योंकि इसमें नेहरू की आलोचना की गई उस वर्ष यशपाल को पुरस्कार नहीं मिला। भाषाओं से हिन्दी का क्षेत्र काफी बड़ा है। इसमें कई योग्य साहित्यकार हैं इसलिए हिन्दी पुरस्कारों में विवाद है। दिल्ली में ही कई योग्य साहित्यकार हैं, कोई न कोई छूट ही जाता है। के न्द्रीय साहित्य अकादमी की स्थिति प्रांतीय अकादमियों से अच्छी हैं। यहां राजनीति का हस्तक्षेप कम है। जब मार्कण्डेय सिंह दिल्ली के उप-राज्यपाल थे, तब हिन्दी अकादमी दिल्ली की कार्यकारिणी में भीष्म साहनी, राजेन्द्र यादव, असगर वजाहत, स्वयं मैं था, प्रो. हरभजन उपाध्यक्ष थे तब त्रिलोचन शास्त्री और मन्मथ नाथ गुप्त को सम्मान लेने के लिए उनके पैर पकड़ कर मनाना पड़ा था कि आप सम्मान ले लें। हिंदी अकादमी से संबंधित लोग जो उससे जुड़े रहते थे उन्हे किसी प्रकार की वित्तीय सहायता अकादमी की तरफ से नहीं दी जाती थी। जब हरभजन सिंह हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष थे। वे बीमार थे और आर्थिक संकट से गुजर रहे थे लेकिन चूंकि वह उपाध्यक्ष थे इसलिए उन्होंने अकादमी की तरफ से कोई सहायता राशि नहीं ली।
जब पीके दवे दिल्ली के राज्यपाल थे तो उस समय हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष नामवर सिंह थे। तब शलाका सम्मान के लिए कृ ष्णा सोबती और साहित्यकार सम्मान के लिए मुङो नामित किया गया था लेकिन भाजपा शासन में मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ने तीन साल तक यह पुरस्कार हमें नहीं दिया। इस पर कृष्णा सोबती ने पत्र लिखकर पुरस्कार लेने से मना कर दिया। इसके बाद मैंने भी मना कर दिया। बाद में जब जनार्दन द्विवेदी हिन्दी अकादमी के उपाध्यक्ष बने तो दोनों को सम्मान दिया।
अरुण प्रकाश जसे स्वाभिमानी साहित्यकार बहुत कम है । मुझसे छोटे हैं लेकिन उन लोगों में से हैं जिनसे मैं मर्यादा की शिक्षा लेता हूं। घोर आर्थिक संकट से गुजरे लेकिन उनके अंदर भारी जीजिविषा है और मैनें उसे कभी टूटते नहीं देखा। बीमारी से जूझ रहे अरुण प्रकाश ने हाल ही में बिहार सरकार का सम्मान लेने से मना कर दिया क्योंकि वहां की सरकार भाजपा समर्थित है। वे हमारे निकट हैं लेकिन पुरस्कार न लेने की बात पुष्पराज ने बताई उन्होंने स्वयं नहीं बताई। यह एक नैतिक मर्यादा और आचरण है जो साहित्यकार को अपने समय का सभ्य और सुसंस्कृ त नागरिक बनाता है। एक तरफ ऐसे लोग भी हैं और दूसरी तरफ वे हैं जो स्वार्थान्ध होकर विज्ञापनी मानसिकता से ग्रस्त हैं ।
(अभिनव उपाध्याय से बातचीत पर आधारित)
आज समाज से साभार

Saturday, August 8, 2009

दिल्ली से गायब होती गौरैया




चूं चू करती आई चिड़िया, दाल का दाना लाई चिड़िया। ये गीत बच्चे कभी मुंडेरों पर गौरैया देखकर जोर से गाते थे। लेकिन अब न मुंडेरों पर गौरैया दिखती है और न ही बच्चों के मुंह से ये गीत सुनाई देते हैं। घर, रसोई और बरामदे में कभी अपनी आवाज से गुलजार करने वाली गौरैया अब नहीं दिखती। इस संबंध में यमुना बायोडायवर्सिटी पार्क के वन्य जीव विशेषज्ञ फैय्याज ए खुदसर का कहना है कि अगर शहरों में गौरैया नहीं दिख रही तो इसके कई प्रमुख कारण हैं, जिसमें कबूतरों की संख्या में इजाफा भी है क्योंकि दिल्ली में कबूतरों को दाना दिया जाता है, जिससे कबूतर एक जगह इकट्ठा हो जाते हैं और उसी इलाके में उनकी संख्या बढ़ती जाती है। अब जहां गौरैया रहती थी, वहां कबूतर रहने लगे हैं। गौरैया का वैज्ञानिक नाम पैसर डोमेस्टिकस है, जिससे इसे घरेलू चिड़िया कहा जाता है। लेकिन दुर्भाग्यवश दिल्ली में ऐसे मकान बनाए जा रहे हैं कि उनमें चिड़ियों के लिए जगह नहीं है। गौरैया कीड़ों में इल्लियां खाती हैं, जिसमें प्रोटीन मिलती ये इल्लियां मिट्टियों में होती हैं, लेकिन दिल्ली में अब जमीन पर भी कंक्रीट बिछाई गई है इसलिए इनको खाद्य सुरक्षा नहीं मिल पा रही है। इसके अतिरिक्त इन्हें प्रजनन करने के लिए जगह का अभाव है।
हालांकि इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय में पर्यावरण विभाग में वन जीव विशेषज्ञ डा. एम शाह हुसैन का कहना है कि गौरैया बड़े शहरों की चिड़िया नहीं है। लेकिन दिल्ली में इसे रहने के लिए माकूल जगह नहीं है। झाड़ियां कम हो गई हैं। ये घास, पौधों के बीज खाती हैं। लेकिन अब दिल्ली में सजावटी पौधे लगाए जा रहे हैं, जो इसके लिए उपयोगी नहीं है। दिल्ली के आसपास के क्षेत्र में जो खेत हैं, उनके बीज वह दवाओं के छिड़काव के कारण नहीं खा सकते। लेकिन इस संबंध में ओखला पक्षी विहार के संरक्षक जेएन बनर्जी का कहना है कि गौरैया आजकल बड़े होटलों में भी खाने में प्रयोग हो रही है, जिससे इसकी संख्या तेजी से घटी है।
अभिनव उपाध्याय

Wednesday, August 5, 2009

बदले कैसे कैसे रंग

आप एक बार फिर सुन लीजिए, यह अंतिम चेतावनी है समय से आइए नहीं तो गैरहाजिरी लग जाएगी फिर यह मत कहिएगा कि तनख्वाह कट गई। जबसे बड़े बाबू की गैरहाजिरी में छोटे बाबू को मझले बाबू का कार्यभार सौंप दिया गया है तब से उनकी मानसिक स्थिति पर अतिरिक्त बोझ भी पड़ गया और वह प्राय: जूनियर, थोड़ा सा सीनियर और मौका मिले तो मुस्कुराते हुए सीनियर लोगों को भी सीख दे देते थे। लेकिन दिक्कत यह होती थी कि उन्हे अपने कर्तव्य का ज्ञान कभी-कभी होता था जब कार्यभार सौंपा जाता था। वह प्राय: दफ्तर में आम नागरिक की तरह नमक, तेल, दाल,चावल का भाव लगाते और घर जाते ही बाबू बन जाते। पत्नी से चाय, पानी, रोटी से लेकर जूते में पालिश तक करवाते। सामान खरीदने के लिए पैसे निकालना उनके लिए प्रसव पीड़ा से अधिक कष्टदायक था। इन सारी व्यथाओं से तंग आकर
उन्होनें तलाक दे दिया। काफी दिनों तक वे दुखी रहे लेकिन कब तक रहते। कुछ दिनों बाद उन्होंने दूसरी शादी रचा ली लेकिन शादी कुछ-कुछ राखी के स्वयंवर जसी थी। वह खर्च के बोझ से दबे जा रहे हैं। कभी-कभी आफिस में बाबू और घर पर पति बनने की कोशिश कर रहे हैं । लेकिन कभी सफल कभी विफल। अब वह लोगों को आप बीती सुनाते हैं । इसी बीच वह सहीराम से टकरा गए, उनका चेहरा देखकर सहीराम ने उनसे पूछा दिया, ‘क्या बात है आजकल चेहरे से बाबूगिरी नहीं दिख रही।ज् उन्होंने मुंह लटकाकर कहा कि जबसे नई बीबी ने दादागिरी दिखाई है तब से आफिस और घर दोनों जगह पति बनकर रहने लगे हैं। सहीराम के साथ एक और सज्जन बीच में ही बोल पड़े कि पत्नी के मायके जाने के बाद भी यह इत्र लगाकर साते हैं लेकिन स्वप्न सुंदरी टिकती नहीं है । रात में सूंघकर चली जाती है। इससे इनकी कोमल भावनाएं निरंतर आहत होती हैं। सहीराम ने उनकी आपबीती सुनकर कहा कि परेशान मत हो पत्नी से सुप्रीम कोर्ट के जज तक भयभीत हैं। आप पत्नी के मायके वालों की सेवा किया करें उन्हें, खुश रखें महंगे तोहफे और खाने के सामान लाया करें। उन्होनें इस बात को गांठ बांध लिए और अपने ससुर के आने पर उन्होंने दाल का सूप और फूलों की जगह गोभी रख दिया पत्नी के कारण पूछने पर कहा कि अभी बाजार में दोनों के भाव आसमान छू रहे हैं।
अभिनव उपाध्याय

Sunday, August 2, 2009

बच के कहां जाएंगे

जनाब, बच के कहां जाएंगे। लगभग अपनी हर बात के अंत में बांगड़ू बिदेशिया यही कहते हैं। लोग उनकी अदा के कायल हैं लेकिन इसके पीछे उनकी मीलों लम्बी व्यथा है। किसी सज्जन ने उनसे मंद मुस्कान बिखेरते पूछ दिया कि बिदेशिया जी ये क्या आप बार-बार कहते हैं कि बच के कहां जाएंगे, जनाब धरती इतनी बड़ी है यहां दिक्कत हुई तो कहीं भी सरक जाएंगे। लेकिन आपका बार-बार कहना कि बच के कहां जाएंगे मन में विभिन्न तरह की आशंका पैदा करता है।
सज्जन की ऐसी बात सुनकर बांगडू़ बिदेशिया ने उनकी मंद मुस्कान के आगे अपनी मुस्कान बिखेर दी जो निश्चित रूप से उन पर भारी पड़ रही थी। कह डाला कि, मैं सच कहता हूं,समझिए बचपन में पोलियो, बुखार, खसरा से बचे तो हेपेटाइटिस मार देगी। थोड़े जवान हुए तो पढ़ने चले गए अब पढ़ने में नरम हो तो मास्टर जी रोज कान गरम करेगें और तुर्रम खां हो तो क्लास के दादा लोग नरम कर देगें।
मामला यहीं शांत नहीं होता, तमाम जगह गिर गए तो लड़खड़ाते उठ जाएगें लेकिन प्रेम सागर में भूल कर भी फिसले तो कहां जाएंगे बस सोच लीजिए! मतलब यहां भी गए मियां रहिमन..।
अगर शादीशुदा हो गए तो मुसीबत ही समझो उसके चक्कर में पड़ोसी से पिटते-पिटते बच भी गए तो श्रीमती से बच के कहां जाआगे। अगर चस्का राजनीति का लग गया तो समझिए ये रोज का आना-जाना, उठना-गिरना यही नहीं लड़खाना भी लगा रहेगा और अंत में बस समझ जाइए..
अगर काम करने में अव्वल हैं, बास मेहरबान है तो मजे चल रहे हैं लेकिन मालिक जब कुर्बानी करने को तैयार हो तो कहां जाएगे? ये तो अंदर की बात है, जनाब मुश्किलें यहां भी कम नहीं हैं। सड़क पर चलना हो या आसमान में उड़ना लेकिन बात फिर वहीं आकर टिकती है कि बच कर कहां जाएंगे। डीटीसी में बस में पाकेट बच गई तो ब्लू लाइन में काम तमाम समझिए। उतरने के बाद लाख संभल कर चले लेकिन मौका पाते ही ब्ल्यू लाइन अपना चिर परिचित काम कर देगी। खुदा इससे भी बचा दे तो अब के हालात देखकर मेट्रो की माया से तो बचना मुश्किल है।
ये सारी बातें सुनकर पहले तो सज्जन एकदम सन्न रह गए और अपनी बात पर पछताने जसी मुद्रा लेकर मुंह लटका दिया। ये देखकर बांगडू बिदेशिया ने आगे तर्क देना चाहा कि सज्जन खुद ही बोल पड़े ‘अरे भाई सच कहते हो अगर सबसे बच गए तो मंहगाई से बच के कहां जाओगे।
अभिनव उपाध्याय

Sunday, July 26, 2009

गंगूबाई हंगल


गंगूबाई हंगल
यह एक अद्भुत संयोग है कि कर्नाटक और हिंदुस्तानी दोनों तरह की संगीत धाराओं का गढ़ कर्नाटक में ही है। अंतर सिर्फ इतना है कि हिंदुस्तानी संगीत कर्नाटक को बीच से काटने वाली तुंगभद्र नदी के उत्तर में पनपा और बढ़ा जबकि कर्नाटक संगीत नदी के दक्षिण में। हिंदुस्तानी संगीत की गायकी के लगभग सारे बड़े नाम उत्तरी कर्नाटक में एक-दूसरे से सटे तीन जिलों से आते हैं, जिनमें धारवाड़, हुबली और बेलगांव शामिल हैं। सवाई गंधर्व, कुमार गंधर्व, बसवराज राजगुरु, मल्लिकार्जुन मंसूर, भीमसेन जोशी, गंगूबाई हंगल और राजशेखर राजगुरु सब के सब इसी धरती की देन हैं।
गंगूबाई अपने परिवार में पहली गायिका नहीं थीं लेकिन उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि शास्त्रीय गायकी के लिए बहुत अनुकूल नहीं थी। यह बात भी उनके खिलाफ जाती थी कि वे महिला होकर शास्त्रीय संगीत की पुरुष प्रधान बिरादरी में दाखिल होना चाहती थीं। गंगूबाई की मां अंबाबाई, यहां तक कि उनकी दादी भी देवदासी परंपरा से आती थीं और मंदिरों में गायन उनके लिए सहज-सामान्य था लेकिन मंदिर के बाहर सार्वजनिक मंच से शास्त्रीय गायन उतना ही कठिन। गंगूबाई का गायन आठ दशक में फैला हुआ है लेकिन शायद गायकी की पुख्तगी से ज्यादा बड़ी बात यह है कि उन्होंने तमाम तरह की विषमताएं ङोलते हुए अपना मुकाम हासिल किया। कन्नड़ में लिखी अपनी आत्मकथा ‘मेरा जीवन संगीतज् में गंगूबाई ने इसका विस्तार से हवाला दिया है और लिखा है कि उन्हें ऊंची जातियों के शुक्रवारपेठ मोहल्ले से निकलते हुए किस तरह की फब्तियां सुननी पड़ती थीं। उन्हें बाई और कोठेवाली कहा जाता था।
गंगूबाई के बचपन के गांव हंगल में मैंने उनका पुश्तैनी घर देखा। सौ साल पहले बने छोटे से अहाते वाले उस घर के पांच टुकड़े हो गए थे, जिस पर बंटवारे के बाद परिवार के लोगों ने अलग-अलग घर बना लिए थे। गंगूबाई की मां के हिस्से में आया टुकड़ा उजाड़ था। खपरैल की छत थी, पर टूटी हुई। सामने के दरवाजे पर ताला लगा था और लकड़ी की दोनों खिड़कियां गायब थीं। मुङो उस घर तक ले गई एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि गंगू उनकी बचपन की सहेली थी लेकिन अब यहां नहीं आतीं। उसने हुबली में घर बनवा लिया है। नई पीढ़ी के बच्चों में ज्यादातर ने उनका नाम नहीं सुना था और कुछ बुजुर्गो में वही हिकारत थी, जिसका जिक्र विषमताओं के रूप में गंगूबाई ने अपनी किताब में किया है। हुबली में गंगूबाई का छोटा सा घर है। सामने बरामदा, अंदर एक आंगन और उसके तीन तरफ बने कमरे। मैंने हंगल और उनके बचपन के बारे में पूछा तो गंगूबाई टाल गईं। बाद में उनकी बेटी और बहू, जो खुद बेहतरीन गायिका हैं, कहा कि बचपन में ङोले सामाजिक अपमान का असर मां पर इतना था कि उन्होंने पचपन साल की होने तक बेटी को सार्वजनिक मंच से गाने नहीं दिया। उन्हें वह वाकया कभी नहीं भूला, जब गायन के दौरान श्रोताओं में से किसी ने कहा, ‘गाना बहुत हुआ बाई, अब ठुमका हो जाए।ज्
गंगूबाई ने अपनी आत्मकथा में बहुत संयम से लेकिन पीड़ा के साथ लिखा है कि शास्त्रीय संगीत में आज भी महिलाओं और पुरुषों में भेदभाव होता है। शायद यही वजह है कि बड़ी से बड़ी गायिका बाई होकर रह जाती है जबकि पुरुष उस्ताद और पंडित बन जाते हैं। इस आधार पर कि वे मुसलमान हैं या हिंदू। उन्होंने इस सिलसिले में हीराबाई और केसरबाई का जिक्र किया है। इस बात पर हैरानी होती है कि शास्त्रीय संगीत में महिलाएं ऊंचे घरानों से क्यों नहीं आईं और जहां से आईं, उनकी स्वीकार्यता इतनी आसान क्यों नहीं थी। इसमें हीराबाई बारोडकर, केसरबाई केरकर, जद्दनबाई, रसूलनबाई और अख्तरीबाई के नाम उल्लेखनीय हैं। समाज ने बहुत बाद में केवल अख्तरीबाई को थोड़ी इज्जत बख्शी और उन्हें बेगम अख्तर कहा जाने लगा।
गंगूबाई का संबंध किराना घराने से था, जिसके उस्ताद अमीर खां मीरज में रहते थे। गंगूबाई की मां अंबाबाई जब अपने घर में गाती थीं तो उस्ताद अब्दुल करीम खां उन्हें सुनने आते थे। गंगूबाई के गुरु सवाई गंधर्व और हीराबाई भी अंबाबाई की गायकी के प्रशंसकों में थीं। धारवाड़ में अंबाबाई को सुनने के लिए उनके घर के बाहर भीड़ जमा हो जाती थी। अंबाबाई ने अपनी बेटी को संगीत की तालीम देने की जिम्मेदारी सवाई गंधर्व को सौंप दी, जिसके लिए गंगूबाई को 30 मील दूर जाना पड़ता था। वहां उनके गुरुबंधु थे पंडित भीमसेन जोशी। उस जमाने में दिन में सिर्फ दो बार रेल चलती थी जो धारवाड़ को सवाई गंधर्व के गांव से जोड़ती थी। यानी कि गाड़ी छूट जाए तो रात स्टेशन पर ही बितानी पड़ती। भीमसेन जोशी वापसी में अक्सर गंगूबाई को घर तक छोड़ने आते थे। फिरोज दस्तूर भी उन दिनों वहीं थे।
सवाई गंधर्व ने गंगूबाई को सिखाने में ख्याल पर जोर दिया और चाहा कि वह सात रागों पर महारत हासिल करें। जाहिर है, गंगूबाई के पास गायकी में भीमसेन जोशी जसी विविधता नहीं है लेकिन भैरवी, आसावरी, भीमपलासी, केदार, पूरिया धनाश्री और चंद्रकौंस में विलंबित में जिस तरह का राग विस्तार उनके पास है वह जोशी और दस्तूर के पास भी नहीं। अपनी हर रचना को प्रार्थना कहने वाली गंगूबाई की सिर्फ एक ख्वाहिश अधूरी रह गई कि वह सौ साल जीना चाहती थीं। प्रकृति ने उन्हें तीन और वर्ष नहीं दिए लेकिन उनकी अंदर तक धो देने वाली गंगाजल जसी पवित्र गायकी किसी की कृपा की मोहताज नहीं है। वह सैकड़ों साल जिंदा रहेगी।
मधुकर उपाध्याय
(आज समाज से साभार)

Saturday, July 18, 2009

उदय, यह तो खुद का निषेध !

उदय, यह तो खुद का निषेध !

रामजी यादव

हाल के दिनों में साहित्य की सबसे बड़ी खबर वरिष्ठ कथाकार उदय प्रकाश को मिला एक पुरस्कार है। उदयजी साहित्य में उस मुकाम पर हैं जहां उन्हें न केवल ढेरों पुरस्कार मिलना संभव है बल्कि वे अनेक लोगों को भी पुरस्कृत करवा सकते हैं। कथा साहित्य में उनके जसी भाषा और कथानकों को लेकर अनेक युवतम कथाकार आ रहे हैं, वे सभी उदय प्रकाश को अपना आदर्श भी मानते हैं। बेशक इसकी तह में अनेक कारण होंगे लेकिन अपनी कहानियों से उन्होंने चर्चा का जो नुस्खा तैयार किया है वह बहुतों को सुगम रास्ता लगता है। दूसरी बात यह कि जिस प्रकार उदय प्रकाश भारतीय समाज और जनता की पीड़ाओं से एक मनोगतवादी रिश्ता रखते हैं वह प्रविधि न केवल काफी रास आ रही है बल्कि उसी सीमा तक अनुचर-रचनाकारों की दृष्टि काम भी करती है। लेकिन ये सब दीगर बातें हैं। उदय प्रकाश द्वारा पुरस्कार ग्रहण करने के पीछे लोगों के मन में जो दुख उभर रहा है वह इस प्रकरण में गोरखपुर के कुख्यात भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के कारण है।
ज्ञातव्य है कि उदय प्रकाश ने गोरखपुर की जिस संस्था द्वारा पुरस्कार ग्रहण किया वह आदित्यनाथ के एक संबंधी द्वारा संचालित है और पुरस्कार समारोह में आदित्यनाथ मौजूद थे। संभवत: उदयजी के चयन में आदित्यनाथ की केन्द्रीय भूमिका रही है। यह दुख एवं शर्म का कारण इसलिए भी है क्योंकि हिन्दी का एक कथाकार जो भारत की सामासिक संस्कृति का अलंबरदार है वह हिन्दुत्व के नाम पर दंगा कराने और मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने के आरोपी सांसद के हाथों या संरक्षण वाली संस्था द्वारा पुरस्कार ग्रहण करता है। यह उदय प्रकाश का नैतिक पतन माना जा रहा है जो एक लंबे साहित्यिक संघर्ष के बाद साहित्य के इतिहास को एक विशिष्ट पड़ाव पर ठहरने का आधार देता है। लेकिन इतिहास कभी ठहरता नहीं। जो लोग उसकी ताकत को पहचानते हैं वे स्वयं किनारे हो जाते हैं और किसी स्तर पर अपनी जगह और स्मृतियां बचा भी लेते हैं, लेकिन जो लोग अपने स्वार्थो को उसके समानांतर ज्यादा तरजीह देते हैं वे हमेशा मलबे में बदल जाते हैं। इसीलिए इतिहास के दाएं-बाएं मौजूद वर्गो का दृश्यपटल पर आना-जाना लगा रहता है। भारतीय लोकतंत्र के एक नाजुक मोड़ पर जबकि स्वयं लेखकों का व्यक्तित्व और उनकी भूमिका लगातार बेमानी होती जा रही हो, इस प्रकार अपराधियों से पुरस्कृत-सम्मानित होना कमाई हुई मर्यादा को स्वयं नाले में बहा देना है। उदय प्रकाश अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जो अपने खाते में यह बदनामी दर्ज करा रहे हों। हमारा देश जातियों में बंटा हुआ देश है और इसके बहुत कम लेखक जातिवाद की प्रवृत्ति के खिलाफ लड़ पाए। यहां नौकरियां, सम्मान, सराहना, इज्जत, रुपए, पुरस्कार सब कुछ जातियों के कारण ही मिलता है और हममें से ऐसा कौन है जो कह सकता हो कि उसने जातीय विशेषाधिकार का लाभ नहीं उठाया है? कौन सच्चाई से स्वीकारेगा कि अपने देश की मेहनतकश जातियों के लोगों और रचनाकारों के लिए भी उसके मन में सहज प्यार है? लाभ-लोभ के सारे पद सवर्णो की बपौती हैं। भाजपा भी उनकी, कांग्रेस भी उनकी, सीपीएम भी उनकी और सीपीआई भी उन्हीं की। इन संस्थानों द्वारा संचालित सांस्कृतिक इकाइयां भी उन्हीं की। लेकिन यह संकीर्णता भारतीय लोकतंत्र को कहां ले गई है? अधिसंख्य रचनाकार-संस्कृतिकर्मी क्षुद्र स्वार्थो के लिए झूठ बोल रहे हैं और आज वे अपनी विश्सनीयता खो चुके हैं।
मुङो निजी रूप से उदयजी के लिए दुख है, क्योंकि यह स्वयं उदय प्रकाश द्वारा उदय प्रकाश का निषेध है। दिनेश मनोहर वाकणकर और थुकरा महराज जसे लोगों के भोलेपन और पीड़ा को समझने वाले उदय प्रकाश की कहानी और ‘अंत में प्रार्थनाज् पर आधारित नाटक और नाटककार पर भाजपानीत मध्य प्रदेश सरकार के गुण्डों ने हमला किया तब उदय प्रकाश इसके खिलाफ लड़े। लेकिन लगता है सब दिन समान नहीं होते। उनकी कहानियों की एक बड़ी विशेषता इस बात में निहित है कि उनके पात्र प्राय: दो यथार्थो के बीच की विडंबनाओं के यात्री रहे हैं। इस तरह उदय प्रकाश सत्ता के बाहर और भीतर के विचार और व्यवहार को सबसे ज्यादा ऐंद्रिकता के साथ कथा में विमर्श का केन्द्र बनाते हैं। लेकिन ध्यान से देखिए तो उदय प्रकाश के सारे पात्र एक विचारहीन मानसिकता के पुतले भर हो जाते हैं। क्या उनके रूप में उदयजी अपने भीतर की विडंबनाओं और भावुकता को ही लगातार चित्रित करते रहे हैं? क्योंकि रामसजीवन हो, वारेन हेस्टिंग्स हो, रामगोपाल सक्सेना उर्फ पाल गोमरा हो, पिता हो, मोहनदास हो, डा. वाकणकर हो या थुकरा महाराज हो सभी व्यवस्था का शिकार होते हैं, विगलित होते हैं, विचलित होते हैं लेकिन लड़ नहीं पाते। अक्सर उदय प्रकाश भी उन्हें कोई रचनात्मक सहानुभूति नहीं दे पाते और लगातार असहाय और दयनीय बनते ये पात्र अपनी रीढ़ की ताकत खो देते हैं। ‘सवा सेर गेहूंज् में ब्राह्मणवाद के जाल में फंसते शंकर की पीड़ा और सामाजिक संरचना को प्रेमचंद इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘शंकर ने सारा गांव छान मारा, मगर किसी ने रुपए न दिए इसलिए नहीं कि उसका विश्वास न था या किसी के पास रुपए न थे, बल्कि इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छेड़ने की किसी की हिम्मत न थी।ज् क्रूर व्यवस्था और निरीहता का इतना विदग्ध चित्र तमाम तकलीफों के बावजूद उदय प्रकाश की कहानियों में लगभग असंभव है।
इसलिए मुङो लगता है कि विचारहीनता के रूपक उदयजी के पात्र जिस व्यवस्था द्वारा उत्पीड़ित हैं उसी व्यवस्था द्वारा सम्मान मिलने पर उसके चरणों में गिर जाएंगे। यदि यह मान लिया जाए कि लेखक के पात्र या रचनाएं उसकी नियति को तय करते हैं तो यह मानकर संतोष किया जा सकता है कि उदय प्रकाशजी इस प्रकरण की पृष्ठभूमि बरसों से तैयार कर रहे थे। नैतिकता संबंधी प्रश्नों का जवाब ढ़ूंढ़ना जनता का काम है और यह एक व्यक्ति के बूते के बाहर है लेकिन इस संदर्भ में सोच-विचार और व्यवहार में मौजूद उन विडंबनाओं पर भी ध्यान जाना चाहिए जो कम से कम नवजागरण काल से हिन्दी मानस में बनी हुई है। ब्रिटिश सत्ता के साथ भागीदारी और साम्प्रदायिक दुर्भावना के साथ शहरी मध्यवर्ग की विपन्नता की पीड़ा को ही सम्पूर्ण भारत का रूपक बना देने वाले भारतेंदु हरिश्चंद और उनके काल के साहित्यकारों को हम अपना आदर्श कैसे मान सकते हैं! जबकि इसके बरक्स देहाती जीवन का दमित-उत्पीड़ित और अकारण अकाल के मुंह में ढकेला जा रहा हिस्सा लगातार उपेक्षित किया जाता रहा है। शहरी मध्यवर्गीय विमर्श के पुरोधा राजेन्द्र यादव को जहानाबाद के बथानी के किसान-मजदूरों की हत्या से क्या लेना-देना? हिन्दी की सारी मुख्यधारा आज घरानों और जनविरोधी, यहां तक कि नए साम्राज्यवाद द्वारा चलाई जा रही संस्थाओं के मालपुए उड़ा रही है। क्या उसे देश की निर्माणकारी ताकतों पर हो रहे हमलों की जानकारी नहीं है? सलवा जुडूम चलाने वालों के साथ मंच शेयर करने वाले लोग क्या उदय प्रकाश के मुकाबले अपने को साफ-शफ्फाक कह सकते हैं? कई लोग अपराधियों और भ्रष्टतम लोगों के प्रति लगातार वफादारी कायम रखे हुए हैं लेकिन मौका देखकर पुरस्कार आदि लौटा देते हैं और चर्चित हो जाना चाहते हैं। क्या वे लोग क्रांतिकारी हैं? असली फैसला तो तब होगा जिस दिन पुरानी संरचनाएं ध्वस्त होंगी और साम्प्रदायिकता और जातिवाद बीते दौर की बात होंगी। अभी तो उस सड़ांध के बाहर आने का दौर है जो बरसों से भीतर ही भीतर बजबजा रही थी।

आज समाज से साभार

Wednesday, July 15, 2009

अब दिन में लगता है डर..


अब दिन में लगता है डर..
प्राय: जब रात होती थी तो डर लगता था अब जब धूप होती है तो डरता हूं। डरने की वजह सूरज नहीं है, तेज धूप भी नहीं है भीड़-भाड़ भी नहीं, दरअसल एक सर्वे आया है कि हादसे रात स्ेा अधिक दिन में होते हैं, सर्वे कंपनी ने अपना भी स्पष्ट शब्दों में नहीं लिखा है। अब तो सरेआम, दिनदहाड़े, आड़ में नहीं सबके सामने बदनाम भी किया जाने लगा। बस रात कहने को रह गई है। अब तो फू लों की बात करने के लिए भी रात की जरूरत नहीं है। हाइब्रिड रातरानी दिन-दोपहर-शाम किसी टाइम खिल सकती है। अब तो इजहारे मोहब्बत को भी गोधुलि बेला का इंतजार नहीं रहा। तो जनाब अब हादसों के लिए रात का इंतजार कतई नहीं । अंट-शंट, बेअंट-शंट और किसी भी प्रकार के स्टंट लेने के लिए दिन सबसे महफू ज है।
दिल्ली जसे शहर में भी बुड्ढे अब रात में नहीं दिन में ही चोरों का शिकार हो रहे हैं। जब एक चोर ने दिन में एक बुढ़िया का गला रेतने का मन बनाया तो उसके साथी ने दबी जुबान में कहा कि अभी दिन है, रात को काम तमाम कर लेना। पहले चोर ने फौरन कहा जान मरवाना चाहते हो क्या, दिन के हादसे की खबर अगले दिन छपती है और रात की खबर तो सुबह ही छप जाती है। हमें भागने का वक्त नहीं मिलता इसलिए जल्दी करो..।
ठीक इसी तरह की पुनरावृत्ति बसों में भी होती है। अब साहसी पाकेटमार पर्स न देने पर पांच इंच का चाकू सरेआम दिन में चलती बस में ही दिखा देते हैं। ये गैर सरकारी प्रबंधन है जो रात का इंतजार नहीं करता। लेकिन सरकारी प्रबंधन भी इससे जरा भी पीछे नहीं है। पुलिस सही नम्बर की गाड़ी लाइसेंस, प्रदूषण और विभिन्न तरह के कागज सहित तड़क कर पकड़ती है और पैसा लेने के बाद मुस्कुराकर छोड़ती है। गलती से दिन में सहीसलामत एक पत्रकार की गाड़ी पकड़ ली। जब उसने अपना परिचय दिया तो नाश्ता पानी कराकर कहा क्या करें साहब कभी-कभी दिन में भी गलत नम्बर लग जाता है। इसके बाद देर तक पुलिस ने हवा में हाथ लहरा उसकी विदाई की जब तक को लेंस वाले चश्मे से दिखाई दिया।
जबसे दिल्ली में मेट्रो के हादसे हुए हैं दिन में मेट्रो में चढ़ते वक्त मेरे एक मित्र सकते में आ जाते हैं, बार-बार शीशे से बाहर झांकनें की कोशिश करते हैं वह यह मापने की कोशिश करते हैं कि मेट्रो धरती से कितनी ऊपर है अगर गिरे तो बच जाएंगे या क्रेन लाना पड़ेगा और क्रेन आ भी गया तो क्या पता वह भी कहीं उलट न जाए। सहीराम ने उन्हे सलाह दी अब रात में चलिए रात में हादसे कम होते हैं।

अभिनव उपाध्याय

Friday, July 10, 2009

बजट पर एक और बहस

बजट के पूर्व की अटकलों ने जो ख्वाब दिखाया था वह काफूर हो गया। उम्मीद भी ऐसी टूटी की अब जुड़ना मुश्किल लग रहा है। लग रहा है पूरी उम्र टैक्स चुकाते ही जाएगी। सहीराम से अपनी व्यथा उनके गांव के सज्जन बयां कर रहे थे। सहीराम को उनकी व्यथा नहीं सुनी गई तब वह उन्हे आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ बाबा चवन्नी के पास ले गए। सज्जन वहां भी शुरू हो गए। उनकी बात सुनकर बाबा चवन्नी ने भवें तान ली और बोले लोकतंत्र की जीभ में हड्डी नहीं होती जिधर चाहे लचका लो, लेकिन सत्ता सुख का मर्म तो आप लोग जानते ही नहीं हैं। फिर उन्होने जो घुट्टी पिलाई कि सज्जन की बोली बंद। अब तो लोग अपनी सभी प्रकार की आर्थिक समस्याओं के समाधान के लिए बाबा चवन्नी के दरबार में आने लगे। एक किसान दम्पत्ति ने जब अपनी समस्या कुछ इस तरह से रखी कि , बाबा जी मैं एमबीए हूं और मेरी पत्नी एमसीए हम दोनों मेहनत से काम कर रहे थे और जिन्दगी में मिठास थी लेकिन आर्थिक मंदी ने प्यार के हलवे में हींग का तड़का लगा दिया । हमारी नौकरी कोसों दूर चली गई। अब मियां बीबी खेती करते हैं। लेकिन हमारे लिए मंदी में कोई ठोस उपाया नहीं हैं। इस पर बाबा ने उन्हे जोर से डांटा, अरे मूर्ख तुम्हे तो छूट ही छूट है ।
तुम्हारी पत्नी कूकर में खाना पकाएगी और गहना पहनकर खेत में खाना लेकर जाएगी। यही नहीं अब एसीडी और सीडी प्लेयर भी सस्ते हो रहे हैं जम कर घर पर ता थैया थैय्या करो। और कहो जय हो दादा की।
लेकिन बाबा गैस सिलेंडर गांव में नहीं आता और बिजली का तो महीनों से पता नहीं न तार है न करंट बस गांव में खम्भे गड़े हैं ऐसे में बजट में विकास की बातें मुंह चिढ़ाती हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा पर कोई ध्यान नहीं है, उनकी बात बीच में काटते हुए बाबा बोल पड़े देखो बच्चा भावावेश में मत बहो ये दोनों बेकार चीजें हैं। आप तो जानते हैं जो पढ़ेगा वो बढ़ेगा और बढ़ेगा वह मांगेगा फिर कहां से देगें इतनी नौकरी। और रही बात स्वास्थ्य पर खर्च करने की तो वह बेवकूृफी है क्योंकि अपना बेटा जब थोड़ा तगड़ा हो जाता है तो आंख तरेरता है फिर ये तो जनता है।
लेकिन बाबा कागज मंहगा हो गया और जूता सस्ता। हां जबसे पत्रकारों ने जूते मारने शुरू किए हैं तब से सरकार को इस पर विचार करना पड़ा रही बात कागज की तो इसका तो शुरू से दुरुपयोग हुआ है। माने अब लिखना छोड़कर जूता...
अभिनव उपाध्याय

Friday, July 3, 2009

रंगकर्म से कैसे जाएंगे तनवीर




रंगकर्म से कैसे जाएंगे तनवीर

राजकमल नायक

हबीब तनवीर के जेहन से रंगमंच कभी गैरहाजिर नहीं हो सका। हर पल रंग पल रहा। हर बात रंगमंच की रही। राजकमल नायक ने इस महान कलाकार को ऐसे देखा-पाया। हबीब साहब के साथ कई वर्कशापों में हिस्सा ले चुके और उनके नाटकों में काम कर चुके राजकमल नायक रायपुर में रंगकर्म से जुड़े हैं। ब.ब. कारंत, श्याम बेनेगल की फिल्मों में प्रमुख भूमिकाएं निभाईं और जमकर रंगकर्म किया। ‘रंग-संवादज् पत्रिका भी निकाली। उनकी यादों में हबीब तनवीर।


हबीब तनवीर के जेहन में रंगमंच कभी गैरहाजिर नहीं हो सका। वे खुद चौबीसों घंटे रंगमंच की ‘आन ड्यूटीज् पर रहे। दोनों एक दूसरे के मातहत रहे और वे रंग हबीब हो गए। उनका हर पल रंग पल रहा। हर बात रंगमंच की बात रही। हर कर्म रंगकर्म रहा। तो क्या हबीब कभी रंगमंच के बाहर नहीं होते? जी नहीं। ‘नो एक्जिट!ज् एक बार रंगमंच में एंट्री ली और उसी के होकर रह गए। तनवीर ने रंगमंच का सुनहरा इतिहास रच दिया। कालजयी रंग पुरुष के रंग कलापों ने देश-विदेश में रंगमंच का झंडा गाड़ दिया। उनके पाइप से निकलते धुएं के गुबार का अशांश भी थिएटर की खुशबू से आबद्ध होता था। उनकी छवि बला की थी। कभी वे महान संत की तरह दीख पड़ते, कभी लगता कि वे दार्शनिक हैं, कभी वैज्ञानिक प्रतीत होते तो कभी सामाजिक कार्यकर्ता, कभी रंग धुनी लगते तो कभी शायर वगैरा-वगैरा।
उनके नाटक जितने परम्पराशील नाट्य को रुपायित करते थे उतने ही उत्तर आधुनिक भावबोध को। उनके नाटक देखते हुए स्टेज मानो घुल जाता था। दर्शक और कलाकार एकमेक हो जाते थे। दूरी मिट जाती थी। सब कुछ इतना सहज, इतना अपना, अपने समय का, अपने पास का हो जाता था कि नाटक नहीं दिखता था, जीवन दिखता था, फिर नाटक दिखता था, फिर जीवन दिखता था। ‘टोटल थिएटरज् की परिभाषा जानना है तो हबीब साहब के नाटक देख लो। हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ी बोली को स्थानीय से समकालीन बनाया। स्थानीयता से वे वैश्विकता में बोली का बोलबाला हबीब के ही बूते की बात थी। भाषा और बोली के इस कठिन क्षरण काल में हबीब ने रंगमंच के जरिए बोली को जीवित और प्रतिष्ठित कर दिया। वे पाठ पढ़ा गए कि लोकमंच के तत्वों, उसकी ऊर्जा, उसकी ताकत के बल पर उपजाया हुआ रंगमंच किसी भी आधुनातन रंगमंच से कमतर नहीं वरन एक कदम आगे ही है। उपज अभिनय ‘इम्प्रोवाइजेशनज् का जमकर और बेहतर इस्तेमाल हबीब साहब के नाटकों में चार चांद लगाता रहा। कभी-कभी तो प्रस्तुति के दौरान ही उनके कलाकार प्रत्युत्पन्नमति के सहारे समसामयिक घटनाओं को नाटक में समाहित कर लेते थे। रिहर्सल के दौरान हबीब साहब गाइड की तरह अपने कलाकारों से दृश्य उपजाते, संवारने के काम में रत रहते थे। सैकड़ों बार एक ही दृश्य की उठा-पटक, उलट-पुलट, कांट-छांट करना उनका शगल था।
1973 में उनसे अल्प भेंट का सुयोग मुङो मिला। हबीब तनवीर नाचा पर वर्कशाप करने रायपुर आए थे। मैं तब तक रंगमंच का मुरीद बन चुका था। चूंकि वर्कशाप नाचा का, लोक कलाकारों का था अत: मैं बतौर ‘रिहर्सल दिखयाज् उसमें शामिल रहा। हबीब तनवीर को जानने-समझने का मौका तो नहीं मिल पाया परंतु नाचा के सैकड़ा भर कलाकारों की कला के दर्शन करने का बेमिसाल मौका मुङो मिल गया था।
असली मौका मिला 1976 में। रविशंकर विश्वविद्यालय, रायपुर में ड्रामा वर्कशाप का आयोजन हबीब तनवीर के निर्देशन में हुआ। छत्तीसगढ के दूर-दराज के कलाकार भी इसमें शिरकत करने आए थे। वर्कशाप में रोज हबीब साहब से बात करने, काम करने के दौरान उनसे निकटता बढ़ी। सातवीं शती के बोधायन रचित संस्कृत प्रहसन ‘नगवद् अज्जुकमज् की तैयारी शुरू हुई। मुङो दो भूमिकाएं करने का मौका मिला। वर्कशाप के दौरान दिन भर हमें हबीबजी नाचा-गम्मत, पंडवानी दिखाते रहते। और खुद भी देखते हुए न जाने क्या बूझते रहते। अपनी निकटता का लाभ उठाते हुए मैंने सकुचाते हुए एक दिन कह ही डाला कि हम सब छत्तीसगढ़ के ही हैं। नाचा गम्मत, पंडवानी देखते ही रहते हैं, कुछ आधुनिक रंगमंच के बारे में बटरेल्ट ब्रेष्ट वगैरा के बारे में बतलाइए। हबीब साहब आग बबूला हो गए। तुम्हें ब्रेष्ट की क्या समझ है? नाचा-गम्मत में तुम्हें ब्रेष्ट नहीं दिखता। अपनी आंखें खोलो, कान और दिमाग खोलो तथी थिएटर समझ में आएगा। यह उम्दा किस्म की फटकार अब तक मेरे काम आती है। उसी दिन शाम को हबीब साहब ने ब्रेष्ट के बारे में, बर्लिनर ऐन्सेम्बल के बारे में बहुत कुछ बताया। समूचे वर्कशाप के दौरान उनसे संबंध बनते-बुनते गए।
संभवत: 1982-83 के आसपास एक और वर्कशाप जो कि मूलत: मास्क निर्माण और उसके उपयोग पर केन्द्रित था, में हबीब साहब के साथ फिर काम करने का अवसर मिला। लंदन की ऐलिजाबेथ लिंच और जिर्रादितबोन हबीब साहब के साथ आई थीं। बड़े-बड़े मास्क जीव-जंतुओं के बनाए गए। हबीब जी ने ही सुझाव दिया कि मास्क का उपयोग करते हुए एक लघु नाटक करना चाहिए। शिविर लगभग समाप्त होने को था। कहानी डेवलप करने में हबीब जी के साथ सभी शिविरार्थी जुटे हुए थे। शो की घोषणा की जा चुकी थी। विश्वविद्यालय के पेड़ों के नीचे खुली जगह में शो करना तय हुआ। बमुश्किल तमाम कथा बन पाई। नाम रखा गया ‘नेटका हांसिस गाज्। शीर्षक छत्तीसगढ़ी में था पर नाटक हिंदी में। मुङो सूत्रधार की बड़ी भूमिका का निर्वाह करना था जिसकी कोई तैयारी नहीं हुई थी। शो के दिन दर्शक आ चुके थे। हबीब साहब बगैर किसी संकोच के, घेरे में खड़े हुए दर्शकों के बीच बैठे मुङो समझा रहे थे कि क्या सीक्वेंस होगा और लगभग क्या कहा जाना है। पाठक विश्वास करें कि अधूरी तैयारी का शो भी ऐसा अद्भुत हुआ कि हम सब भी अवाक् रह गए। हबीब साहब ने मेरी पीठ ठोंक कर ईनाम दिया।
1976 से बने संबंध प्रगाढ़ होते चले गए। अनेक बार मैंने उनके नाटकों को बनते, परिष्कृत होते देखा है। उनके लगभग सभी नाटकों के अनेक प्रदर्शन मैंने देखे। हबीब साहब तथा ‘नया थियेटरज् के कलाकारों ने मेरे कई नाटकों को देखा, पसंद किया, समीक्षा की, बहस की, मार्गदर्शन दिया है। मुङो हबीब साहब से रंगमंच और नाटक पर बहस करने की छूट मिलती रही। 1986 के आसपास ‘भारत भवनज् भोपाल में उनका नाटक ‘हिरमा की अमर कहानीज् हुआ। मैं वहीं रंगमंडल में था। प्रस्तुति के बाद बहिरंग के स्टेज पर मैं उनसे मिलने गया। उन्हें बधाई दी। वे मुङो एक ओर ले गए और पूछा-अब बताओ, कैसा रहा? मैंने कहा-थोड़ा ढीला है। ऐसा लगता है एडिटिंग बहुत जरूरी है। उन्होंने कहा-नाटक के स्क्रू को तो मैं कसूंगा ही। मैंने कहा, और आपके आदिवासी कलाकार स्टेज पर गोली लगने के बाद गिरकर बहुत देर तक उठते ही नहीं। क्या आपने सायास ऐसा किया है? हबीब साहब बोले-ये आदिवासी कलाकार बस्तर से ढूंढ़कर लाया हूं। कमाल का नाचते-गाते हैं। नाटक की मांग के मुताबिक कुछ मूक दृश्य की रिहर्सल भी इनसे करवाई है। जब इन्हें मंच पर बंदूक का निशाना बनाया जाता है तो ये अपनी तरह से गिरकर मर जाते हैं। और वे सोचते हैं कि अब तो हम मर गए अब उठकर क्यों जाएं और कैसे जाएं? इसीलिए बहुत देर पड़े रह जाते हैं। कई बार तो मंच से इन्हें हकालकर, घसीटकर ले जाना पड़ता है, बत्ती गुल करनी पड़ती है। हबीब साहब और मैं ठठाकर हंस पड़ते हैं।
हबीब साहब के एक ही नाटक का हर प्रदर्शन शने: शने: बदलता जाता है, पकता जाता है। नया थियेटर अपने नामानुरूप रंगरत् रहा है। ‘नया थियेटरज् इसीलिए हमेशा नया बना रहा है क्योंकि वह प्रगतिशील, प्रयोगधर्मी पारंपरिक, वैचारिक आधुनिक के संगुफन को रंजकता से अभिव्यक्त करता रहा है। ‘नया थियेटरज् मनुष्य के अहम् सवालों को, द्वंद्वों को, संघर्षो को प्रकट करता रहा है। यह ‘नया थियेटरज् में ही हो सकता था कि एक ओर खाना पक रहा है या चाय बन रही है तो दूसरी ओर नाट्याभ्यास जारी है। कलाकार अपनी भूमिका करके दौड़ते हुए भात-दाल भी रांध लेता है या खा लेता है और फिर वापस अपनी भूमिका में भी आ जाता है। चावल बीनते हुए अभिनेत्री रोल करते यहां देखी जा सकती है। अभिनेता अपने बच्चे को गोद में लिए अभिनय कर सकता है। सभी को सभी नाटक यहां याद रहते हैं। ‘शो मस्ट गो आनज् सभी के रक्त में हैं। अशिक्षित कलाकारों को रोल याद कराने का जिम्मा हबीब साहब का भी है, साक्षर कलाकारों का भी। रिहर्सल का समय और स्थान कहीं भी, कभी भी, कितना भी हो सकता है। जीवन और नाटक का एका देखना हो तो ‘नया थियेटरज् देख लें।
हबीब तनवीर रंगधुनी थे। शूद्रक का नाटक हो या बाणभट्ट का, शेक्सपीयर का हो या मौलियर का, रवीन्द्रनाथ टैगोर का हो या हबीब जी का स्वरचित सभी छत्तीसगढी बोली में रचकर अपने हो जाते हैं। हिन्दी, उर्दू, छत्तीसगढ़ी, अंग्रेजी का मिश्रित इस्तेमाल भी हबीब साहब ने खूब किया है। संगीत तो उनके नाटकों का अनिवार्य अंग था। लोक धुनों को खंगाल-खंगालकर उन्होंने अपने नाटकों में बड़ी खूबी से पिरोया। शेरो-शायरी और शास्त्रीय संगीत भी उनके नाटकों में आवश्यक उपकरण की तरह उपयोगी साबित हुए। 1994 में संगीत नाटक अकादमी, दिल्ली के ‘प्रथम युवा निर्देशक वर्कशापज् में देश भर के नामी निर्देशक, रंग विशेषज्ञ हम तेरह युवा निर्देशकों की क्लास लेने आया करते थे। इस चालीस दिवसीय वर्कशाप के लीडर थे प्रख्यात रंग निर्देशक ब.ब. कारंत और रंग मनीषी नेमिचंद्र जन। कारंत मेरे गुरु थे और मैं उनका परम शिष्य। हबीब तनवीर हमारी छह दिवसीय क्लास लेने पहुंचे। कारंतजी ने उन्हें रिसीव करते हुए कहा कि आपके अखाड़े का भी एक युवा निर्देशक यहां आया हुआ है। हबीब साहब ने क्लास में जब मुङो देखा तो बड़े प्रसन्न हुए। छह दिन तक उनसे रंग-मुठभेड़ चलती रही।
हबीब तनवीर लंदन के डंकन रास को अपना गुरु मानते थे। डंकन रास ने उनसे कहा था कि ‘कहानी को खूबसूरती से पूरा कह जाना ही नाटक है।ज् इस ‘खूबसूरतीज् और ‘पूराज् कहने में ही सैकड़ों पापड़ बेलने पड़ते हैं। एक और वाकया हबीब साहब बताते थे। मुम्बई में बलराज साहनी के नाटक में काम करते वक्त कई बार बताने के बावजूद अभिनय में खोट होने पर हबीब तनवीर को बलराजजी ने चांटा जड़ दिया। बाद में अभिनय बढ़िया हो गया। हबीब ने बलराज साहनी से पूछा कि ऐसा क्यों हुआ? इस पर बलराज जी ने कहा-‘यह मसल्स मेमोरी का कमाल है। यह दुखद है कि हबीबजी ‘नया थियेटर की पचासवीं सालगिरह मनाने की तैयारी के बीच हमसे बिछड़ गए। लेकिन वे हमारे रंगकर्म में हमेशा उपस्थित हैं। इसमें वे अनुपस्थित हो ही नहीं सकते।

आज समाज से साभार

Wednesday, July 1, 2009

सरोद का सहयात्री


सरोद का सहयात्री

बिंदु चावला

मैहर के उस्ताद अलाउद्दीन खां साहिब स्वयं कहते थे कि उन्हें और उनकी पत्नी मदीना बेगम को जब कई वर्ष तक बेटा नहीं हुआ, तो आखिर एक दिन किसी हिंदू महात्मा के दर्शन और आशीर्वाद में मिली भभूत खा लेने से अली अकबर का जन्म हुआ। यह 1922 की बात है। पिता अलाउद्दीन खां हमेशा यही शुक्र मनाया करते ,और जिस एक दिन अली अकबर के यहां भी बेटा हुआ उसका नाम मोहम्मद आशीष रखा गया। मोहम्मद यानी मुसलमान नाम, आसीस यानी हिंदू।
आशीष से जो आता है वह भगवान का कोई न कोई काम जरूर करने आता है। अली अकबर खां साहब ने सरोद को अपनाकर उसे दुनिया के लिए एक बेहतरीन और शानदार सोलो(एकल)बजाने लायक साज बनाया। यहां तक कि बीसवीं सदी में सरोद की यात्रा ही उनके जीवन की कहानी से जुड़ी हुई है। बचपन में ‘गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ हैज् वाली बात थी। बाबा अब्बा कम गुरु ज्यादा थे। हंसते-खेलते नहीं कि बेटा बिगड़ जाएगा। पीट-पीटकर सिखाया करते। रोजाना अठारह घंटे का रियाज और उसके बाद कुछ दाद भी न देते। बाबा की छड़ी तो मशहूर थी ही पर शिष्यगण यह नहीं जानते होंगे कि जिसे गुरु सबसे ज्यादा पीटे मानो उसे सबसे ज्यादा चाहते हैं। अली अकबर को ही सबसे ज्यादा पीटा जाता।
मेरे पिता पंडित अमरनाथ अक्सर सुनाया करते कि यह सच बात है कि डांट-मार खाते-खाते अली अकबर एक दिन इतने तंग आ गए कि आधी रात सरोद गले में बांध मैहर वाले अपने घर के अपनी ही खिड़की से कूदकर भाग गए। खून बोलता है। एक दिन पिता ने भी तो अपने मां-बाप का घर छोड़ यही किया था, संगीत सीखने के लिए। अली अकबर कोई सत्रह-अठारह साल के होंगे तब। फिर क्या था वे कहीं भी जाते उनका आने वाला भाग्य उनके साथ था। महाराज जोधपुर के यहां उनका नया जीवन शुरू हुआ। जिस तरह से पिता गाना और बजाना सिखाया करते अली अकबर खां साहब ने भी यही सिलसिला शुरू किया। सिखाते-बजाते उन्हें बेशुमार इज्जत मिली। पर उस वक्त रियासतें भी खत्म होने जा रही थीं, मजबूरन उन्हें कोलकाता भागना पड़ा। आते ही अली अकबर कालेज आफ म्यूजिक शुरू किया।
अब्बा से ही उनके मिजाज में एक गहरी बात आ गई थी। वे बोलते बहुत कम थे। यह उनके जीवन का एक बहुत बड़ा योग था। कुछ भी कहना होता उसे वे अपने साज में ही ढालकर कह देते। उनका साज बोलता। और कैसा बोलता। सरोद को हाथ में लेते ही सुनने वाले अश-अश करते उठते। जहां उनके गुरु भाई पंडित रविशंकरजी एक बहुत बड़े गिनतकार माने जाते वहीं खां साहब एक महान लयकार माने जाते। लय के ऐसे-ऐसे झोल बनते उनके बजाने में कि मानो एक सरोदिया नहीं बल्कि किसी कम्पोजन के हाथ में सरोद थमा दिया गया हो। पश्चिम से आए वायलिन वादक यहूदी मेन्युईन ने उनका सरोद सुना। वे दंग रह गए। उन्होंने हिंदुस्तान में ऐसा सरोद कभी नहीं सुना था। वे खां साहब को विदेश ले गए। न्यूयार्क, लंदन। एक दिन ऐसा आया कि उनका संगीत विदेश में इतना सराहा गया कि वे वहीं के हो गए। मरीन काउंटी कैलिफोर्निया में उन्होंने अपना एक और स्कूल अपने ही नाम से खोल लिया और आखिरी वक्त तक वहीं रहे। हजारों शिष्यों को तालीम दी। अच्छे-अच्छे वादक बनाए। दूर-दूर तक साज का नाम रोशन होने लगा। विदेश में बस जाने के बारे में लोग उन्हें बहुत कुछ कहते। वे स्वयं भी हिंदुस्तान के लिए बहुत उदास रहते लेकिन यहां रहने के लिए लौटकर कभी नहीं आए।
देश-विदेश की बड़ी-बड़ी कांफ्रेंसों में जब भी बजाते कोई भी अशोभ(अप्रचलित)राग खोलने से हिचकिचाते थे। हेम विहाग, मदन मंजरी और उनका अपना प्रिय चंद्र नंदन जो उन्हीं के कहने से मालकौंस, चंद्रकौंस, नंदकौंस और कौंसी कान्हड़े का मिश्रण है। उनके कई शागिर्दो में से मुंबई फिल्मों के जाने-माने संगीतकार जयदेव भी उनके शार्गिद बने। यहीं दिल्ली में उनके बेटे आशीष खां तो थे ही। एक वक्त था जब जयदेवजी अपने लुधियाना का घर छोड़कर दिल्ली भाग आए थे। पिताजी पंडित अमरनाथ जी भी जब अपना घर छोड़ आए तो रोहतक रोड पर एक छोटे से किराए के मकान में रहने लगे। पांच साल इकट्ठे रहे। घर में एक ही थाली होती और उसी में इकट्ठा भोजन करते। उसी रोहतक रोड के मकान में जयदेवजी के पास उस्ताद अली अकबर खां साहब आया करते। और उसी मकान में कई बार उस्ताद अमीर खां साहब अमरनाथजी के गुरू भी आते। गाने की चर्चा होती और खाना होता। फि ल्मों में संगीत की बहुत चर्चा होती क्योंकि जयदेवजी का यही रुझान था।
फिर सब लोग मुम्बई चले। अमरनाथजी ने राजेन्द्र सिंह बेदी की ‘गरम कोटज् का संगीत तैयार किया। अली अकबरजी ने दो फिल्में साइन कीं। ‘आंधियांज् और ‘हमसफरज्। इनमें जयदेव उनके सहायक थे। फिर खां साहब ने बंगाली हंग्री स्टोन अर्थात ‘क्षुधित पाषाण का संगीत दिया जिसमें उन्होंने उस्ताद अमीर खां से एक बेहद खूबसूरत और लोकप्रिय गाना गवाया। उसके बाद सत्यजीत राय की ‘देवीज् में संगीत दिया। उनकी आखिरी फिल्म थी इतालवी निदेशक अर्नादो बर्तोलजी की लिटिल बुद्धा।
खां साहब पद्मविभूषण थे, हालांकि उनके गुरु भाई रविशंकरजी ‘भारत रत्नज्। इस पर भी उन्हें काफी कुछ सुनने को मिलता। बहुत उकसाया जाता। पर वे कुछ नहीं बोलते थे। उनके पिता मैहर महाराजा के मुलाजिम लेकिन गुरु भी थे। वे महाराजा से कुछ भी करने को कह सकते थे। लेकिन कहते नहीं थे। इसी घरानेदार अंदाज में अली अकबर खां साहब भी नतमस्तक रहे। उन्होंने कभी फोन उठाकर अपने लिए भारत सरकार से कुछ भी नहीं मांगा।

आज समाज से साभार

Friday, June 26, 2009

ये हार का जश्न है

ये हार का जश्न है
लोग खुश हैं, मुस्कुरा रहे हैं, तरह-तरह की मिठाइयां बांटी जा रही हैं, रेवड़ियों के लिए लाइन लग रही है। गर्मी को देखते हुए शरबत और लस्सी की भी तैयारी है। लोग छक कर खा-पी रहे हैं। लोगों को अपने पेट का अंदाजा है लेकिन कुछ लोग बहकने के आदी हो गए हैं उनके लिए बकायद व्यवस्था की गई है। खाना खाकर दवा खाने वाले बहुत कम हैं लेकिन पीकर लुढ़कने वाले बढ़ते जा रहे हैं । जश्न के तमाम कारणों पर विपक्षी पार्टियों के लोगों ने नजर दौड़ाई। कुछ ने गड़ाईं लेकिन कुछ संभावित भी नजर नहीं आया। इसके लिए नियुक्त जासूसों की जानकारी पर भी लोगों ने भरोसा नहीं किया। कोई भरोसा भी करता तो कैसे क्योंकि नेता जी के यहां वे लोग छक कर खा रहे थे जो लोग चुनाव हार चुके थे। किसी ने आशंका जताई हो सकता है, दूसरी शादी करने वाले हों और इसके पूर्व का भोज हो। किसी उनके बेटे के शादी की चर्चा छेड़ी लेकिन किसी भी बात से मन को संतोष नहीं हो सका। इसपर नेता जी के किसी पूर्व परिचित नेता ने साहस करके पूछ ही लिया कि, ‘भाई साहब, ये गाजा-बाजा, ये खाना-पीना, ये बिन मानसून के झमाझम बारिश किसलिएज् इस प्रश्नवाचक मुद्रा में उनके मुख को देखकर नेता जी मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं और अपना हाथ उठाते हुए कहा कि आप यह न समझें कि मुङो चुनाव हारने के बाद सम्पत्ति को खर्च करके पवित्र बनने की इच्छा है, हां ये बात और है कि अक्सर चुनाव जीतने के बाद मुङो पवित्रता का दौरा पड़ा करता था। ये हार का जश्न है। हारने पर हर आदमी दुखी होता है। दुखी होना उसका फर्ज बन जाता है, अगर वह दुखी नहीं होता तो लोग उसे आसामान्य करार देते हैं और चुनाव में हारने वाला व्यक्ति दुखी न हो तो और भी हैरानी होगी। जब मैंने ये जश्न शुरु किया तो लोगों के मन में तमाम तरह की लघु, अति लघु, दीर्घ और सुदीर्घ तरह की शंकाएं उठी लेकिन हमने हर शंका का यथा संभव समाधान करने की कोशिश की।
अब जब मैं चुनाव हार चुका हूं और खुश हूं तो इसमें भी विरोधियों को कोई चाल दिख रही है। लेकिन ये चाल नहीं यह प्रसन्नता है, अद्भुत प्रसन्नता। अगर मैं चुनाव जीत जाता तो विपक्ष के नेता की मेरी कुर्सी चली जाती। यह हार तो मेरे लिए वरदान है।

Wednesday, June 17, 2009

.... पाने के लिए तुम्हारे पास ऑस्कर है


पाने के लिए तुम्हारे पास ऑस्कर है

चुनाव के पूर्व और चुनाव के बाद भी स्लम बस्तियों की हालत में सुधार न होने से स्लम बस्तियों के लोगों में आक्रोश था लेकिन आक्रोश इस तरह का नहीं है कि केंद्र सरकार, प्रदेश सरकार या संभावित विकास करने वाले किसी विभाग पर इसका अल्प, दीर्घ या अल्पाधिक प्रभाव पड़े। लेकिन संबंधित अधिकारी तक कोई बात कहने वाला नहीं था। बस्ती के विकास के लिए तमाम तरह की समितियां बनी स्मलडागों ने निक्कर पहन घूम-घूमकर चंदा मांगा। बेस्लमडागों ने उन्हे ऐसे हालात में देखकर बालकनी से जी भर के चिढ़ाया। लेकिन स्लमडागों ने एक साथ नारा लगाकर कहा दुनिया के स्लमडागों एक हो जाओ खोने के लिए तुम्हारे पास कु छ नहीं है और पाने के लिए तुम्हारे पास आस्कर है। यह सुनकर एक बेस्लमडाग ने कहा कि आस्कर आखिर दिया किसने, इस पर स्लमडाग बगले झांकने लगे। बेस्लमडाग यह देखकर मुस्कुरा रहा है। स्लमडागों की सभा में एक नेता टाइप स्लमडाग ने अपने विचार व्यक्त किए कि एक सर्वे में नतीजा निकाला गया है कि मूड खराब हो और स्थितियां प्रतिकूल हों तो व्यक्ति अपने काम पर ज्यादा ध्यान देता है। खाए, पिए, अघाए और सतत आनंद में डुबकी लगाने वाले लोगों की तरक्की रुक गई है। इस भाषण को सुन रहा एक बेस्लमडाग जोर देकर पूछा कि तुम किस नस्ल के स्लमडाग हो। इस पर एक बार फिर सभी स्लमडाग निरुत्तर हो गए।
स्लमडाग ने उछलकर कहा देखो समाजवाद अपनी जड़ें जमा रहा है अब एशिया मूल के लोगों को भी आस्कर मिल रहा है हम जानते हैं इससे बेस्लमडागों को खुजली हो रही है, अरे हो रही है तो होती रहे हम तो दुनिया भर के स्लमडागों को एक करने में जुटे हैं। ये बात सुनकर बेस्लमडाग को जम्हाई आने लगे। उसने बदन तोड़ते हुए कहा ये ख्यालीपुलाव बंद करो ये सब बुद्धिजीवियों के सोचने की चीज है अपना दिमाग इसमें मत खपाओ, औकात में रहो, बहुत कर चुके बकबक, इस पर स्लमडागों ने मोर्चा खोल दिया, बात हाथापाई तक आ गई। फिर एक सुर में सभी बेस्लमडागों ने भूकना शुरू किया, लेकिन स्लमडाग का कोई नेता आगे नहीं आया। अखबार में इसकी चर्चा हुई, चैनलों ने भी इसे कवर किया, बुद्धिजीवियों ने पानी पी पी कर अपनी राय रखी। इसे वैश्विक परिदृश्य में देखा जाने लगा जब तक बिक सकती थी खबर बिकी, फिर सब कुछ शांत।
हफ्तों बाद एक स्लमडाग फिर रोटी की जुगाड़ में बेस्लमडागों की बस्ती में निकला उसने एक दुकान पर मैगजीन के मुख्य पृष्ठ पर डैनी बॉयल की फोटो देख अपने मसीहा की तरह निहारने लगा तभी दुकानदार ने उसे दुरदुरा दिया।

अभिनव उपाध्याय

Thursday, June 4, 2009

तुर्की ब तुर्की - गुहा चरन्ति मनुष:

चुनाव बीत गया। संसद में जाने के बाद सांसद फूले नहीं समा रहे हैं। जो नए हैं वो तौर तरीके सीख रहे हैं जो पुराने हैं वो सिखा रहे हैं। संसद में सीखने-सीखने का और बाहर पीने-पिलाने का दौर दिल खोलकर चल रहा है माने खुशियां उफन रही हैं मन के गुलगुले बुलबुले बन कर फूट रहे हैं। नए नए कपड़ों से लेकर पारंपरिक परिधान मे सज संवरकर लोग आ रहे हैं। जो हर बार जीत रहे थे और इस बार नहीं जीते वह बस टीवी देखकर संतोष कर रहे थे।
बहरहाल सांसद को की एक नई नर्सरी इस बार संसद में आई है पुराने सांसद उन्हे सिखा पढ़ा रहे हैं। कुछ पुराने सांसद भी चाटुकारिता बस अपने को नया कह रहे हैं। लेकिन विपक्ष के अर्ध बूढ़े सांसद ने उनके बयान पर टिप्पणी की कि सांड की सींग काटने पर वो बछड़ा नहीं बन जाता है। विपक्ष के सांसद ने नए सांसदों की क्लास ली और कहा कि देश को कल्चरल क्राइम से बचाओ। सरकार ने संस्कृति की रक्षा की कोई चिंता नहीं है। वादे पर वादे लेकिन सब बेकार सरकार रानीतिक पारदर्शिता के नाम पर पोलिटिकल अत्याचार भी कर रही है। देश को सांस्कृ तिक विमर्श की आवश्यकता है। तभी एक युवा सांसद ने जोर देकर क हा बुढ़ऊ लोगों को ब्रेनवाश की आवश्यकता है।
रिटायर्ड सांसद तिलमिला गए लेकिन शांत भाव का अभिनय करके बोले गवेद में भाषा के सौंदर्य पर अनेक सूक्तियां पाई गई हैं उसमें से एक है, ‘गुहा चरन्ती मनुष: न योषा सभावती विदथि एव सं वाक्ज् अर्थात जसे संभ्रांत पुरुष की स्त्री परदे में रहती है उसी तरह सभा में प्रयुक्त शिष्ट जन की वाणी अर्थ गर्भित और सधी हुई होती है। आप लोगों को ऐसा नहीं बोलना चाहिए। और विकास पर जोर देना जरूरी है। विकास का प्रयास ही हमें शिखर तक ले जाएगा। कभी कभी यह अपवाद हो जाता है जसे मैं।
तभी एक सांसद ने रोष पूर्वक कहा लेकिन मन का मंत्रालय नहीं मिला है तो विकास कैसे हो। आखिर आला कमान को योग्यता के आधार पर विभागों का वितरण करना चाहिए था।
संसद में जाने के बाद वहां किस चीज की ध्यान देने की आवश्कता होती है? एक नए नवेले सांसद के पूछने पर भूूतपूर्व सांसद ने जवाब दिया कुछ खास नहीं बस सब ये देख लेना कि जहां बैठेगें वहां से विपक्षी दल के सांसद कितनी दूर पर बैठते हैं। कुछ सभ्य गालियां जरुर सीख लेना, ट्रेडिशनल गाली तो बिल्कुल छोड़ देना और हां इस बार सुना है कुछ नई महिला सांसद भी आई हैं इसके लिए शायरी की किताब ले जाना मत भूलना।
अभिनव उपाध्याय

Saturday, May 30, 2009

तुर्की ब तुर्की-

यह व्यंग चुनाव के पहले लिखा गया था-

इंटलैक्चुअल गधा

सूरज तप रहा है और पारा चढ़ रहा है, चुनाव का पारा तो लगता है थर्मामीटर तोड़ कर बाहर निकल आएगा। ऐसे में चुनावी परिचर्चा के लिए सहीराम समेत कई लोग नुक्कड़ पर इकट्ठा हुए। सब लोग नेताओं के क्रिया कलाप पर अपनी चर्चा कर रहे थे। एक सज्जन ने कहा कि ऐसा कवि लोग लिखते हैं कि बरसात में विरहन को प्रिय की याद बहुत सताती है और चुनाव जसे-जसे करीब आता है इस मौसम में नेता लोगों का भी विरह जाग जाता है और वोटरों से मिलने की तड़प अपने चरम पर होती है। किसी ने कहा कि लेकिन हम ये कैसे समङों कि सच्चा नेता कौन है और कौन नेता वोट के लिए वास्तविक मेहनत कर रहा है। इस पर बुद्धिराज ने अपनी राय रखी, देखिए नेता कई प्रकार के होते हैं। कु छ दलीय, कुछ निर्दलीय और कुछ दलदलीय। इसलिए सूक्ष्म अध्ययन के बाद मैंने यह जाना कि जब चुनाव के मौसम में लू चल रही हो, गर्म हवा न चाहने पर भी अंदर तक छौंक दे, दूर-दूर तक चील कौवे न दिखे रात्रि के तीसरे पहर में भी जो नेता करबद्ध नीग्रो सुंदरी की तरह दंक्तपंक्तियां चमकाते हुए आपके सामने वोट के लिए याचना करे तो सुधी जन उस पर विचार अवश्य करें।
इस बात पर सबने सहमति जताई। जनपद के विद्वान और वरिष्ठ नेता प्रोफेसर जनहितराम ने अपने चुनाव चिह्न् गधे के साथ तन्मयता से चुनाव प्रचार शुरू किया। धोबी कमालू ने उनके निवेदन पर अपना गधा दो सौ रुपए दिहाड़ी और दाना-पानी पर एक दिन पहले ही बांध दिया। नेता जी जी तोड़ मेहनत करने लगे लेकिन गधा पहले ही दिन खूब दौड़ा- भागा, अपनी डोर खोल दी, खूंटा उखाड़ दिया, घूम फिर कर आता तो नेता जी को भी दुलत्ती लगा देता। सब परेशान कि इसे क्या हो गया है। धोबी कमालू को बुलाया गया जांच पड़ताल के बाद जॉन स्टुवर्ट मिल की पुस्तक ‘ऑन लिबर्टीज् की चबाई गई लुगदी मिली। प्रोफेसर जनहितराम को पता चल गया कि यह उनकी लाइब्रेरी में रात को घुस गया था। किसी तरह नेता जी ने प्रचार किया लोगों का भारी समर्थन भी मिल रहा था लेकिन गधे पर सबकी दृष्टि थी कहीं वह कोई आतंकी पुस्तक न पढ़ ले। कुछ दिन तक तो सब ठीक रहा लेकिन एक दिन गधा उदास था और सुस्त भी, बच्चे उसे छेड़ रहे थे कोई उसके कान में लकड़ी डालता तो कोई नाक में सींक, गधा पूरे दिन कु छ नहीं खाया, झुग्गी के बच्चों को नंगा देख गधा ने भी अपनी पीठ से कपड़ा गिरा दिया। नेता को गधे का रूप समझ में नहीं आ रहा था। तभी एक किताब वाला धोबी से शिकायत करने आया कि उसके गधे ने गांधी जी की सभी पुस्तकें चबा डाली हैं ।
अभिनव उपाध्याय

Tuesday, May 26, 2009

राजनीति है बड़ी बेवफा..

राजनीति है बड़ी बेवफा..
प्यार और हार का बड़ा गहरा संबंध है कब जीतते-जीतते हार जाएं कहा नहीं जा सकता और इसका स्पष्ट कारण भी सीबीआई दौड़ाने पर भी पता नहीं चलता। जनता से बेइंतहा प्यार करने वाले और अपनी विश्वसनीय जीत की इच्छा पाले नेता प्यारेलाल परिणाम आने के बाद दुखी हैं और अपने समर्थकों से बता रहे रहे हैं कि सच राजनीति बहुत बेवफा टाइप है, और हार के बाद आंसू बेपरवाह निकल रहे हैं। इसके लिए क्या-क्या नहीं किया, बाबूजी से झूठ बोलकर रात-रात भर जागकर जनता के बीच प्रचार करने गया। कई दिनों तक सक्रिय राजनीति में आने के लिए घर का गेंहू चावल तक बेंच दिया, बर्तन बेंचने की कोशिश कर रहा था लेकिन वो तो बेगम ने बेलन उठा लिया। पुज्य पिता जी इसी शोक से चल बसे और अब इस सक्रियता का ये सिला मिलेगा सोचा भी नहीं था।
चुनाव के आश्चर्यजनक परिणाम आने पर नेता जी की चिंता छुपाए नहीं छुपती वो परेशान हैं। उनके सलाहकार सरस जी ने इसका सरल सा उपाय बताया कि आईपीएल को लेकर हो हल्ला था लेकिन सभी टीमों की कमाई हुई जो जीता उसकी बल्ले-बल्ले, जो हारा उसकी भी चांदी चले। इसमें बड़ी भूमिका चियर्स गर्ल ने निभाई क्यों न अब चुनाव प्रचार के लिए भी चियर्स गर्ल को बुलाया जाए। नेता जी भड़क गए उन्होने कहा यह हमारी नैतिकता के खिलाफ है। इस तरह का अब कोई नया सुझाव स्वीकार नहीं किया जाएगा।
नेता जी कोई स्पष्ट निर्णय नहीं ले पा रहे थे तभी कल्लू किसान ने समझाया, नेता जी इस तरह नि राश न हो हमने आपको ही वोट दिया था लेकिन आप हार क्यों गए हमें नहीं पता। हमारे बाबू जी कहते थे रात में जाग कर पढ़ो और सुबह भोर में भी जागका पढ़ो तो शायद हर परीक्षा में जीत पक्की है। इसलिए मेरा भी कहना है कि आप रात में जाकर जनता की नब्ज पढ़ो और फिर सुबह में भी..। नेता जी अब कुत्ते, बिल्ली, गधा, बकरी तक से सलाह ले रहे हैं। नेता जी उन्नत क्वालिटी के सुझाव के इंतजार में हैं लोग तरह-तरह के सुझाव दे रहे हैं कोई कह रहा है पार्टी बदल दें कोई पोशक बदलने की सलाह दे रहा है नेता जी कि बेचैनी बढ़ती जा रही है कि लेफ्ट में जाएं कि राइट में,नार्थ में जाएं कि साउथ में अब तो उनको तरह-तरह के सपने दिन में दिखाई दे रहे हैं। उनकी चिंता बढ़ती जा रही है तभी किसी ने सलाह दी नेता जी अपनी पार्टी बना लीजिए अब आप चुनाव लड़िए नहीं लड़ाइए। उनकी आंखें चमक गई कि हर्रे लगे ने फिटकिरी और माल मिले चोखा।
अभिनव उपाध्याय

राजनीति है बड़ी बेवफा..

राजनीति है बड़ी बेवफा..
प्यार और हार का बड़ा गहरा संबंध है कब जीतते-जीतते हार जाएं कहा नहीं जा सकता और इसका स्पष्ट कारण भी सीबीआई दौड़ाने पर भी पता नहीं चलता। जनता से बेइंतहा प्यार करने वाले और अपनी विश्वसनीय जीत की इच्छा पाले नेता प्यारेलाल परिणाम आने के बाद दुखी हैं और अपने समर्थकों से बता रहे रहे हैं कि सच राजनीति बहुत बेवफा टाइप है, और हार के बाद आंसू बेपरवाह निकल रहे हैं। इसके लिए क्या-क्या नहीं किया, बाबूजी से झूठ बोलकर रात-रात भर जागकर जनता के बीच प्रचार करने गया। कई दिनों तक सक्रिय राजनीति में आने के लिए घर का गेंहू चावल तक बेंच दिया, बर्तन बेंचने की कोशिश कर रहा था लेकिन वो तो बेगम ने बेलन उठा लिया। पुज्य पिता जी इसी शोक से चल बसे और अब इस सक्रियता का ये सिला मिलेगा सोचा भी नहीं था।
चुनाव के आश्चर्यजनक परिणाम आने पर नेता जी की चिंता छुपाए नहीं छुपती वो परेशान हैं। उनके सलाहकार सरस जी ने इसका सरल सा उपाय बताया कि आईपीएल को लेकर हो हल्ला था लेकिन सभी टीमों की कमाई हुई जो जीता उसकी बल्ले-बल्ले, जो हारा उसकी भी चांदी चले। इसमें बड़ी भूमिका चियर्स गर्ल ने निभाई क्यों न अब चुनाव प्रचार के लिए भी चियर्स गर्ल को बुलाया जाए। नेता जी भड़क गए उन्होने कहा यह हमारी नैतिकता के खिलाफ है। इस तरह का अब कोई नया सुझाव स्वीकार नहीं किया जाएगा।
नेता जी कोई स्पष्ट निर्णय नहीं ले पा रहे थे तभी कल्लू किसान ने समझाया, नेता जी इस तरह नि राश न हो हमने आपको ही वोट दिया था लेकिन आप हार क्यों गए हमें नहीं पता। हमारे बाबू जी कहते थे रात में जाग कर पढ़ो और सुबह भोर में भी जागका पढ़ो तो शायद हर परीक्षा में जीत पक्की है। इसलिए मेरा भी कहना है कि आप रात में जाकर जनता की नब्ज पढ़ो और फिर सुबह में भी..। नेता जी अब कुत्ते, बिल्ली, गधा, बकरी तक से सलाह ले रहे हैं। नेता जी उन्नत क्वालिटी के सुझाव के इंतजार में हैं लोग तरह-तरह के सुझाव दे रहे हैं कोई कह रहा है पार्टी बदल दें कोई पोशक बदलने की सलाह दे रहा है नेता जी कि बेचैनी बढ़ती जा रही है कि लेफ्ट में जाएं कि राइट में,नार्थ में जाएं कि साउथ में अब तो उनको तरह-तरह के सपने दिन में दिखाई दे रहे हैं। उनकी चिंता बढ़ती जा रही है तभी किसी ने सलाह दी नेता जी अपनी पार्टी बना लीजिए अब आप चुनाव लड़िए नहीं लड़ाइए। उनकी आंखें चमक गई कि हर्रे लगे ने फिटकिरी और माल मिले चोखा।
अभिनव उपाध्याय

Monday, May 25, 2009

भारत के लोकतंत्र की विजय है 2009 का चुनाव

भारत के लोकतंत्र की विजय है 2009 का चुनाव
लोकसभा चुनाव के बाद आए परिणामों और राजनीति के ऊपर मशहूर पत्रकार और लेखक मार्क टली से साक्षात्कार-
प्रश्न-लोकसभा चुनाव 2009 को आप कैसे देखते हैं?

उत्तर-चुनाव 2009 दरअसल भारतीय लोकतंत्र की जीत है। कांग्रेस बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन फैसला केवल उसके हक में हुआ यह नहीं कह सकते। जिसने काम किया वह जीता। इसी से यह निष्कर्ष निकलता है कि केंद्र सरकार को काम करके दिखाना होगा। जनता ने उसे एक स्थिर सरकार वाली सुविधा भरपूर दी है।
भारत में पंद्रहवीं लोकसभा के आम चुनाव ने दुनिया को दिखा दिया है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और इस बार खास बात रही कि किसी भी दल ने परिणाम पर टीका टिप्पणी न करते हुए अपनी हार स्वीकार की है, जबकि अक्सर देखा गया है कि हार के बाद राजनीतिक पार्टियां इसे पचा नहीं पाती। विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने भी अपनी हार स्वीकार की है। निश्चित तौर पर यह भारत के लोकतंत्र की विजय है।
यह काफी लम्बा चुनाव था जो करीब एक महीने तक चला लेकिन किसी भी राष्ट्रीय पार्टी के पास खास मुद्दा नहीं था। हम यह भी नहीं कह सकते कि यह जीत स्पष्ट रुप से कांग्रेस की जीत है, क्योंकि हर राज्य में स्थानीय मुद्दे परिणाम के लिए प्रभावी रहे। मिसाल के तौर पर बिहार में नीतीश कुमार का शासन संचालन, महाराष्ट्र में शिवसेना का विभाजन, पश्चिम बंगाल में नंदीग्राम और सिंगूर जसे मुद्दे चुनाव परिणाम को प्रभावी करने वाले कारकों में थे। जिसने विकास किया वह जीता। दिल्ली को ही लें विधान सभा चुनाव हों या लोकसभा चुनाव शीला दीक्षित की छवि विकास करने वाली मुख्यमंत्री की है इसलिए दिल्ली में कांग्रेस की विजय हुई। नीतीश ने भी अच्छी सरकार देने की कोशिश की और इसके अच्छे परिणाम आए। आंध्र प्रदेश में भी राजशेखर रेड्डी ने सुधारात्मक कार्य किए और परिणाम उसके पक्ष में रहे। इसतरह चुनाव परिणाम के लिए कई स्थानीय मुद्दे प्रभावी रहे।
इसमें एक खास बात जो निकल कर सामने आई है वह यह कि जनता ने स्पष्ट संकेत दे दिया है कि जो हमारे लिए काम करे, विकास करे उसको ही चुनाव करेंगे। हांलाकि ऐसा देखा गया है कि प्रदेश में जो सरकार रहती है प्राय: उसका असर लोकसभा चुनावों पर पड़ता है लेकिन ऐसा इस बार नहीं हुआ है। इसमें उत्तर प्रदेश की स्थिति अलग है वहां कांग्रेस ने अपनी सीटें तो बढ़ाई हैं लेकिन मतों का प्रतिशत बहुजन समाज पार्टी के पास अधिक है।

प्रश्न- क्या सरकार के कार्यकाल को लेकर कोई संदेह है?

उत्तर- इस बार कांग्रेस के पास अधिक सीटों को देखकर लगता है कि यह स्थायी सरकार होगी। इसमें अस्थिरता नहीं होगी। कांग्रेस ने इस बार तालमेल बनाने के लिए कोई सिफारिश नहीं की क्योंकि अगर एक पार्टी नहीं साथ देगी तो दूसरी दे देगी और पार्टियां तैयार भी हैं। एक बात और इस बार वामपंथी दल भी नहीं हैं जो बाहर से समर्थन दे रहे हैं या टांग खींच रहे हैं, इसलिए इस बार एक सुदृढ़ सरकार की उम्मीद है।

प्रश्न- जिस तरह क्षेत्रीय पार्टियों को सीटें नहीं मिली हैं क्या ऐसा लगता है कि एक उफान के बाद इनका हस हो रहा है?
उत्तर- क्षेत्रीय पार्टियों की कम सीटें आने पर कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि क्षेत्रीय पार्टियों का भविष्य खतरे में है लेकिन मेरा मानना है कि यह अभी कहना जल्दीबाजी होगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश की तरह ही उड़ीसा और तमिलनाडु में भी क्षेत्रीय पार्टियों क ो सीट नहीं मिली हैं लेकिन वोट मिला है।

प्रश्न- इस चुनाव परिणाम को देखते हुए भाजपा के बारे में आप क्या कहेंगे ?

उत्तर- इस समीकरण को देखते हुए लगता है कि सबसे अधिक दिक्कत भारतीय जनता पार्टी के लिए है। भारतीय जनता पार्टी में कुशल नेतृत्व का अभाव है। इसकी विचारधारा में भी विभाजन है। भारतीय जनता पार्टी का एक दल तो विकास चाहता है जबकि दूसरा दल कट्टर हिंदुत्व की बात करता है। इससे भाजपा को खतरा है। कोई भी दल एक साथ दो घोड़ों की सवारी नहीं कर सकता या दो राष्ट्र पर नहीं चल सकता। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी भाजपा को मोदी और वरुण गांधी की लाइन में लाना चाहता है।

प्रश्न- इस सरकार की क्या-क्या चुनौतियां हो सकती हैं?

उत्तर- वर्तमान सरकार की चुनौतियों का जहां तक सवाल है सरकार को शासन प्रणाली में सुधार लाना आवश्यक है। इससे भ्रष्टाचार कम होगा। सरकार जो पैसा विकास पर खर्च करनी चाहती है वह विकास पर ही खर्च हो तब ही विकास होगा। सरकार मूलभूत सुविधाओं के निर्माण में पैसा खर्च करे। चीन में विकास कार्य तेजी से हो रहा है लेकिन भारत में यह दर धीमी है। सरकार पैसा भी लगाती है तो इसे अधिकतर बिचौलिए खा जाते हैं। भाजपा के शासन में सड़क परियोजना जितनी तेजी से चली उसका वह विकास दर कांग्रेस के शासन में नहीं रहा। सरकार को इस पर ध्यान देना होगा।

प्रश्न- भारत का अपने पड़ोसी देशों के संबंधों के बारे में आपका क्या मानना है?

उत्तर- भारत के सार्क देशों से संबंध का मामला भी महत्वपूर्ण है, भारत पड़ोस के देशों के साथ दखलंदाजी नहींे कर सकता क्योंकि वे उसके खिलाफ हो जाएगें। हालांकि श्रीलंका के विकास के लिए भारत कुछ आर्थिक मदद कर सकता है या सुझाव दे सकता है। भारत की पाकिस्तान से बातचीत जारी होनी चाहिए। भारत को यह सोचना भी चाहिए कि पाकिस्तान मुसीबत में फंस गया है। तालिबानियों का बढ़ना भारत के हित में नहीं है। किसी भी हाल में पाकिस्तान का नुकसान भारत के हित में नहीं हो सकता। वर्तमान में दक्षिण एशिया में शांति और सहयोग की आवश्यकता है।

Wednesday, May 6, 2009

तीन कविताएं

छांव

दोपहर की धूप में जब सूख जाता है गला
और चटकने लगता है तलवा
तब बहुत महसूस होती है
छांव तुम्हारे आंचल की।

मेरी...
एक फंतासी ताउम्र की
जब-जब आए सावन,
या जब रंग बिखेरे मौसम,
या छा जाए बसंत की मदमाती खुशबू,
या दिख जाए कोई जोड़ा, हंसता- खिलखिलाता
या जब पोंछता हूं माथे का पसीना
तब याद आ ही जाते हो अक्सर, जिसे लोग कहते थे
मेरी..।



दोस्त-

हां वह यही कहती थी,
जब खुश होती थी
और चहक कर पकड़ा देती थी
चाकलेट का डिब्बा,
या फिर मायूसी में रख देती थी
हथेली पर अपना माथा
और फिर गर्म आंसुओं से भीगती थी अंगुलियां देर तक,
अक्सर चाय का बिल चुकाने की जिद में
वह कर देती थी झगड़ा,
और कुछ देर बाद वह यही कहती कि वह दोस्त है मेरी।
आज भी जब कांच की गिलास सेंकती है हाथ,
वह मिल ही जाती है चाय की चुस्की में,
होंठो पर चिपकती मिठास लिए।

Saturday, May 2, 2009

नेता की फिसलन

नेता की फिसलन
लोग अक्सर पानी कीचड़ या केले के छिलके पर फिसलते हैं लेकिन नेता लोगों की फिसलन में मौसम, कीचड़ या कोई फल कारक नहीं होता इनके लिए तो बस अवसर की बात है जब मौका मिला पल्टी मार गए।
सहीराम की एक ऐसे ही नेता जुगाड़ीराम से मुलाकात हो गई। उम्र अस्सी पार लेकिन सबसे दहाड़ कर कहते हैं कि वही लोकतंत्र के असली पहरुए हैं। सहीराम ने उनसे पूछा कि इस चुनावी समर में आपकी सक्रियता का क्या कारण है? क्या किसी पार्टी से चुनाव लड़ रहे हैं या बस हो हल्ला है? यह सुनते ही जुगाड़ीराम भड़क उठे। उन्होंने जोर देकर कहा आप बच्चों जसा सवाल न करें। हम पैदाइशी नेता हैं। हमारे पुज्य पिता जी नेताओं की सभाओं में भाषण सुनने के लिए खेत जोतना छोड़ देते थे। सहीराम ने फिर पृूछा, अच्छा किस पार्टी को समर्थन कर रहे हैं? शायद ही कोई पार्टी हो जिसको हमने समर्थन न किया हो, बह्मचर्य में क्रांतिकारी कम्युनिस्ट था, गृहस्थ आश्रम में कांग्रेसी रहा वानप्रस्थ में जाने के बारे में सोच रहा था लेकिन जंगल कट कर मकान बन गए इसलिए भाजपा ज्वाइन कर मंदिर-मंदिर घूमने लगा सच कह रहा हूं खूब जोर-जोर से कह रहा था कि मंदिर वहीं बनाएंगे लेकिन न राम सुने न कल्याण और व्यथित मन ने सन्यास के लिए व्याकुल हो गया अभी सन्यास के बारे में विचार बनाया था कि समाजवादियों ने पकड़ लिया अब उम्र के इस पड़ाव पर भी मैंने मुलायम मन से लोहिया-लालू-लल्लन का जप किया लेकिन क्या पता था ये सब इतना बेदर्दी से धकिया देगें।
मतलब पार्टियों की सेवा कर कर के आप बूढ़े हो गए हैं, बूढ़ा होगा तुम्हारा बाप, अभी तो मैं जवान हूं। जोर देकर जुगाड़ी राम चिल्लाए। अच्छा आपका मुद्दा क्या है किस मुद्दे को लेकर चुनाव लड़ना चाहते हैं? इस पर उन्होंने दुखी मन से कहा सहीराम जी यही तो रोना है मेरे जितने भी मुद्दे थे विपक्षी दलों ने चोरी कर लिया है मैंने तो लोगों को इस चुनाव में जुगाड़ के भरोसे जीवन यापन क रने की शिक्षा देने वाला हूं। ये सारी बातें सुनकर जुम्मन मियां ने जम्हाई लेते हुए कहा कि जुगाड़ीराम जी हमें भी कुछ बताइए महंगाई देखकर तो आंसू भी नहीं सूख चुके हैं उन्होंने छट से बताया अब प्याज का पराठा खाएं आंसू फिर निकल पड़ेगें। पिंटू पढ़वइया ने चुनाव और आईपीएल के समय को लेकर और उसमें नियमित पिता जी की डांट से परेशान होने की बात कही कि ‘सरस्वती का ध्यान करो बेटा पढ़ो नहीं तो लक्ष्मी रूठ जाएगी।ज् इस पर जुगाड़ीराम ने बताया कि सरस्वती की वीणा के तार से उल्लू की टांग बांध दो बिना उल्लू के लक्ष्मी जी किस पर बैठ कर जाएंगी। सहीराम ने जुगाड़ीराम से कहा कि नेता जी ये उपाय तो.., कोई बात नहीं कम से कम हम औरों की तरह सच्चाई से मुंह तो नहीं मोड़ रहे हैं।
अभिनव उपाध्याय

मुस्कान के प्रकार

मुस्कान के प्रकार
कवि बिहारी ने मुस्कान पर बहुत कुछ लिखा है, मुस्कान शायरों की पहली पसंद हुआ करती थी। लेकिन अब मुस्कान के प्रकार बदल रहे हैं। जसे प्रोफेशनल मुस्कान, एजुकेशनल मुस्कान, अनप्रोफेशनल मुस्कान, सम मुस्कान, विषम मुस्कान, स्थाई मुस्कान, अस्थाई मुस्कान आदि आदि। मतलब यह है कि आप अगर कहीं जा रहे हैं तो उस अनुसार आपकी मुस्कान होनी चाहिए। कारपोरेट जगत की मुस्कान तो माशाअल्लाह। शायरों ने मुस्कान को कभी नहीं मापा था लेकिन आजकल मुस्कान सेंटी मीटर, इंच और मिली मीटर में नापी जाती है। डेढ़, ढाई या सवा इंच टाइप मुस्कान पर किताब भी आ चुकी है। मुङो चिंता तब होती है कि कहीं साहित्यकारों के पास मुस्कान मापने का नैनो मीटर टाइप पैमाना न आ जाय, विज्ञान से संभव है नहीं तो कला तो है ही।
जबसे प्रेस कांफ्रेंस में जूता चलना शुरु हुआ है एक नई तरह की मुस्कान हमारे नेताओं के चेहरे पर देखने को मिल रही है। यह भी दो प्रकार की है, जूता चलने से पूर्व की मुस्कान और जूता चलने के बाद की मुस्कान। एक चैनल की एंकर ने मुस्कुराते हुए इन दोनों मुस्कानों के मध्य तुलनात्मक विेषण प्रस्तुत किया, सबने मुस्कुराते हुए उसकी प्रशंसा की लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि ये किस टाइप की मुस्कान है।
सहीराम के पड़ोसी हंसमुख बाबा के शिष्य दुखहरन मास्टर जब क्लास में बच्चे से पूछते हैं कि ‘पज् से क्या होता है बच्चा जोर से बोलता है काइट और तब मास्टर की मुस्कान देखने लायक होती है।
मंहगाई देखकर एक मध्यम वर्गीय कुत्ते की हंसी पर ग्रहण लग गई लेकिन फिर भी वह पूंजीवादी कुत्ते को देखकर गाली देकर तिक्ष्ण मुस्कान बिखेर देता था थोड़ी देर बाद ढेरों सर्वहारा कुत्ते विभिन्न सुरों में गाली देकर पीछे-पीछे मुस्कुरा शुरू कर दिए।
गांव में जो लोग अधिक हंसते हैं उन्हे प्राय: ‘दंत चियारज् संज्ञा से विभूषित किया जाता है। वह भूखे, प्यासे रह लेगें लेकिन मुस्कुराए बिना नहीं रह सकते। कुछ तो विचित्र तरीके से हंसते हैं अगर जोर से हंस दें तो अट्टहास से आस-पास के पशु पंक्षी ही लापता हो जाए। दंत चियार टाइप एक सज्जन सहीराम के गांव में भी थे जिनकी सार्वजनिक मुस्कुराहट प्रसिद्ध थी। गांव में बाढ़ आए या सूखा, हैजा हो या इंसेफेलाइटिस, बारात निकले या जनाजा वह निम्न, मध्यम या उच्च श्रेणियों में मुस्कुरा ही लेते हैं। लेकिन जब उनके गांव में कोई करबद्ध नेता चुनाव प्रचार करने आता है और उसे वोट डालने का निवेदन करता है तो उसकी हंसी रोके नहीं रुकती।
अभिनव उपाध्याय

Saturday, April 25, 2009

किस्मत और मेहनत ने साथ दिया और शोहरत कायम है

किस्मत और मेहनत ने साथ दिया और शोहरत कायम है


हालीवुड में प्रसिद्धि तब मिली जब ज्वेल आफ क्राउन नाटक में उन्हे प्रिंसेस का रोल मिला। अब इंग्लैंड में लोग इन्हे प्रिंसेस के नाम से जानने लगे। इतनी प्रसिद्धि बटोरने के बाद 26 सितम्बर 1987 को सदा के लिए भारत आ गई। लेकिन यहां पर भी काम करना जारी रखा। दिल्लगी, चलो इश्क लड़ाएं, हम दिल दे चुके सनम, सांवरिया, चीनी कम सहित कई फिल्मों में काम किया।
इनके उत्कृष्ट योगदान को देखते हुए दिल्ली सरकार ने इन्हे 2008 में ‘सदी की लाडलीज् पुरस्कार से नवाजा।
उनकी उम्र के हिसाब से हफीज जालंधरी की गजल ‘अभी तो मैं जवान हूं उन पर सटीक बैठती है और बड़ी तन्मयता से जोहरा सहगल अपने प्रश्ांसकों के कहने पर इसे सुनाती भी हैं।

Friday, April 24, 2009

जब नेहरु जी ने तोहफा भेजा

जब नेहरु जी ने तोहफा भेजा
हमारी शादी इलाहाबाद में अपने रिश्तेदार के यहां 14 अगस्त 1942 को हुई। उस वक्त पूरे भारत में इमरजेंसी लगी थी क्योंकि भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हो गया था और पं जवाहर लाल नेहरु जी जेल में बंद थे जेल से छूटने के बाद उन्होंने हमारे रिश्तेदार के घर तोहफा फिजवाया। यह हमारे लिए नेहरु जी का प्रेम था। शादी के बाद 1943 में जोहरा सहगल अपने पति कामेश्वर सहगल के साथ लाहौर में स्कूल खोला। लेकिन कुछ दिन बाद भारत आ गई। यहां उन्होने 1945 में पृथ्वीराज थियटर ज्वाइन किया और अब अभिनय में पूरी तरह से रम गई। इनकी बहन नुजरा, पृथ्वीराज कपूर के अधिकरत नाटकों में उनकी पत्नी का किरदार निभाती थी। जोहरा सहगल इप्टा से भी जुड़ी रही 1946-47 में यह उसकी वाइस प्रेसीडेंट भी रही। सन उन्नीस सौ पैंतालिस से साठ के बीच ही जोहरा सहगल ने फिल्मों के लिए भी काम किया। उन्होंने गुरुदत्त की बाजी फिल्म में कोरियोग्राफी की, इसी बीच बलराज साहनी के साथ भी काम किया। दिल्ली के शंकर मार्केट में दिल्ली नाट्य अकादमी भी खोला लेकिन वह उसी तरह बंद भी हो गई।

Thursday, April 23, 2009

प्यार किया तो डरना क्या

प्यार किया तो डरना क्या

जोहरा सहगल में काम के प्रति अद्भुद लगाव है और गजब की ऊर्जा भी है कि 97 साल की उम्र में भी वह अपने कार्य के प्रति सजग और सक्रिय हैं। नृत्य के प्रति उनके लगाव के कारण ही उन्होनें सिमतोला नैनीताल में एक नृत्य अकादमी में उनकी मुलाकात कामेश्वर सहगल से हुई। उम्र में साढ़े आठ साल छोटे होने के बाद भी जोहरा ने उनसे शादी की। इस शादी के बारे में वह बड़ा खुल कर बात करती हैं कि हमारा दो साल तक अफेयर चला। मैं बार-बार कहती थी मैं उम्र में तुमसे बड़ी हूं लेकिन कामेश्वर राजी नहीं थे। उन्हे तो बस जोहरा चाहिए...।
वह बताती हैं कि शादी के बारे में भी बड़ा दिलचस्प वाकया हुआ था, इनके पिता जी शादी के लिए राजी नहीं थे इसके कई कारण थे एक तो वो कट्टर मुश्किल थे और शायद उन्हे इसका दुख भी रहा होगा कि मैं उनकी मर्जी से शादी नहीं कर रही थी लेकिन बाद में वह मान गए लेकि न एक शर्त यह थी कि नैनीताल में नहीं करनी है। हमें ये शर्त मंजूर थी।

Wednesday, April 22, 2009

पृथ्वीराज कपूर हमारे देवता थे

पृथ्वी राजकपूूर तो हमारे देवता थे
हिन्दी सिनेमा के युग पुरुष को पृथ्वीराज कपूर को वह देवता कहती हैं। उनका मानना है कि पृथ्वीराज कपूर का नाटक के प्रति जो लगाव था और रचनात्मकता या प्रयोग उन्होने किए वह अद्वितीय है। जोहरा सहगल पृथ्वी राजकपूर के बारे में बताते हुए भाव
विभोर हो जाती हैं वह कहती हैं कि पापा जी जसा इंसान होना मुश्किल है। उनके साथ काम करना गर्व की बात थी। जोहरा सहगल ने पापा जी के साथ काम करना सुखद बताती हैं। वह कहती हैं कि उनकी बहन ने सबसे अधिक पापा जी के साथ काम किया दोनों की जोड़ी लोगों को खूब जंचती थी। अपने बारे में भी वह बताती हैं कि मैंने भी एक पापा जी के साथ एक नाटक में बतौर हिरोइन का रोल किया था। उनका सरल स्वभाव और काम के प्रति लगाव देखकर लोग दंग रह जाते थे।

Tuesday, April 21, 2009

अभी तो मैं जवान हूं

अभी तो मैं जवान हूं

27 अप्रैल को जोहरा सहगल का 97 वां जन्मदिन है उम्र के वह कला जगत की अकेली महिला हैं जिसके ऊपर यह गजल सटीक बैठती है कि अभी तो मैं जवान हूं। यूं तो वह लोगों से कम बातचीत करती हैं लेकिन पिछले महीने अशोक वाजपेयी के सौजन्य से एक कार्यक्रम में उन्होने अपने बारे में बताया निश्चय ही वह क्षण सबके लिए सुखद था लगभग ढाई घंटे उन्होने जिस तरह श्रोताओं को बांध के रखा वह अद्भुत था, उस सुनी गई बात को मैने लिखने का प्रयास किया है, सुझाव, संदेश और आलोचना आमंत्रित है। उम्मीद है उनके बारे में जो जानकारी दी जा रही है आपको पसंद आएगी- यह कड़ी आगे भी जारी रहेगी

१- मैं डांसर बनना चाहती थी
कभी-कभी कु छ लोग समय से आगे निकल जाते हैं। और उनके लिए उम्र कोई मायने नहीं रखती। उम्र में शतक के करीब पहुंच चुकी और आवाज में वो दम कि अनजान आदमी शायद ही जान पाए कि इस शख्सियत की उम्र इतनी है।
27 अप्रैल 1912 में नजीबाबाद मुरादाबाद में जन्मी जोहरा सहगल वालिद मुमताउल्ला खां के पांच बेटियों और दो बेटों में से एक हैं। पिता के प्रगतिशील विचारों के होने के कारण उन्हे और उनकी बहन को पाकिस्तान के लाहौर के क्वीन मेरी कालेज पढ़ने के लिए भेजा गया। नहीं तो उस वक्त एक मुस्लिम समाज में ऐसा करना संभव नहीं था।
कालेज में जोहरा का अंदाज एक टॉम बॉय जसा था। लेकिन नृत्य और संगीत का शौक बेहद था। एक कट्टर मुस्लिम परिवार नृत्य सीखने में यहां भी बाधा बना था लेकिन उनके वालिद ने एक बार फिर उनका कहना माना और वह तीन साल तक जर्मनी में नृत्य सीखा। वहीं पर इनकी पहली मुलाकात उस समय के मशहूर डांस ग्रुप के संचालक उदय शंकर से हुई और बाद में जोहरा जी ने उनके साथ काम भी किया।
अपने एक संस्मरण में वह बताती हैं कि वह 1938 में ही न्यूयार्क और लांस एंजिल्स में काम करने गई।

एक ही थैले के...

गहमा-गहमी...