Saturday, November 29, 2008

हमारी तरक्की का राज है संगठन

7- दलजीत सिंह ओबेराय
हमारी तरक्की का राज है संगठन
23 मस्जिद लेन भोगल में रहने वाले दलजीत सिंह ओबेरॉय का कहना है कि हम 1984 में संगठित थे इसलिए बच गए और आज भी हम संगठित हैं इसलिए तरक्की कर रहे हैं।
विभाजन के बाद हमारे पुरखे पाकिस्तान से जान बचाते हुए आए, भारत को हम अपना देश समझते थे लेकिन एक बार फिर हमारे देश में ही हमें जान के लाले पड़ गए। रब का लाख-लाख शुक्र है कि हमारे परिवार की जान बच गई। वह बताते हैं ‘हमारे कुछ रिश्तेदार जो भोगल में नहीं रहते थे वो मारे गए। हमें उनको खोने का बेहद दुख है क्योंकि वह बेगुनाह थे और हमारे अजीज भी थे।ज्
वह आगे कहते हैं ‘भोगल में भी दंगाइयों ने कम उत्पात नहीं मचाया था। वह बस एक मौका चाहते थे हमें खत्म करने का। हमारा उनसे कोई जातिय बैर नहीं था लेकिन वे उन्मादी थे और एक भारी भीड़ हमारी दुश्मन हुई जा रही थी। एक बार फिर ऐसा लग रहा था कि यह दिल्ली मेरी अपनी नहीं बेगानी है। हमारे साथ किसी भी वक्त अनहोनी हो सकती थी। हमने अपनी गलियों के आगे अपने ट्रक खड़ा कर रखे थे जिससे दंगाइयों की पूरी भीड़ यहां न आ सके। और अगर वह एक-एक करके आते तो हम उनसे निपट सकते थे।ज्
63 वर्षीय दलजीत सिंह एक ट्रक ड्राइवर थे जब 84 का सिख दंगा हुआ था। वह उस समय की घटना को याद करते-करते खो जाते हैं। फिर काफी देर चुप होने के बाद कहते हैं कि ‘31 अक्टूबर को मैं मेहरौली में अपना ट्रक खड़ा किए हुए कमेंट्री सुन रहा था तब पता चला कि इंदिरा गांधी को गोली मार दी गई। यह खबर काफी आहत करने वाली थी क्योंकि वह हमारे देश की काबिल प्रधानमंत्री थी। दूसरी खबर हमारे साथी ट्रक ड्राइवर जो मेडिकल की तरफ से आ रहे थे वे वहां पर हो रही हाथापाई के बारे में बता रहे थे। जो हमें फिक्र में डाल रही थी हमें अपने परिवार को लेकर चिंता थी। किसी तरह मैं अपने घर पहुंचा। लोग दुकानों को लूट रहे थे, उनमें आग लगा रहे थे। 1 नवम्बर को एक भारी भीड़ भोगल की तरफ बढ़ी आ रही थी लोग खून का बदला खून का नारा दे रहे थे।ज्
ये दंगा लगभग पूरे दिल्ली में फैला हुआ था। दंगाइयों ने पालम गांव में हमारे जीजा राजेंद्र सिंह ओबेरॉय और उनके बेटे को मार दिया। हम अपने रिश्तेदारों को लेकर भी चिंतित थे।
मामला धीरे-धीरे शांत हुआ। हमारे पास के गुरुद्वारे में बहुत सारे शरणार्थी आए हुए थे। हम लोगों अपने घर से उनके खाने के लिए खाने के लिए ले जाते थे। इसके अलावा उनकी मदद के लिए चंदा भी इकट्ठा करते थे।
हम आज भी लोगों की मदद करते हैं। वे चाहे हमारे समुदाय के न हो फिर भी। आज हमारा बेटा ट्रवेल एजेंसी का काम देखता है। हम पहले से बेहतर हैं आराम से रोजी रोटी चल रही है। लेकिन देश में हो रहे तरह-तरह के फसाद हमें दुखी करते हैं।

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